Book Title: Sammati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Abhaydevsuri
Publisher: Motisha Lalbaug Jain Trust

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Page 682
________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा 649 वस्तुमात्रमन्यत्र समानपरिणामाव ? / अनुभूयते च सामान्यम्-अलिंगजत्वान्नानुमानेन-अविसंवादित्वात प्रत्यक्षप्रमाणेन, प्रमाणान्तरानभ्युपगमात् / तथाहि-प्रत्यक्षेणैव ज्ञानेन शाखादिविभागपरिच्छिन्दताऽपि दवियसि देशे वृक्षादिमात्रप्रतिपत्तिदर्शनम् , तन्निराकरणे चानुभवविरोधः / न च सादृश्यम् , समानपरिणामाभावे तदसम्भवात् / ननु च यदि समानपरिणामः सामान्यम् , तस्य वस्तुनः सजातीयादपि परिणामाद् विभक्ततयाऽन्यत्राऽनन्वयात् क्वचित् गृहीतसम्बन्धेन शब्देन लिगेन वाऽन्यस्य तज्जातीयस्य प्रतिपादनं न प्राप्नोति / नैष दोषः, विभक्त ऽपि वस्तुतस्तस्मिन्ननाश्रितदेशादिभेदे समानपरिणाममात्रे शब्दस्य लिंगस्य वा तावन्मात्रस्यैव संकेतितत्वात् सम्बन्धं गहीतवतोऽन्यत्रापि तत्परिणाममात्रेण भेदप्रतिपत्तरजन्यत्वात् तत्तया प्रतिपत्त्यविरोधान्न दोषः / प्रतिपादयिष्यते च नित्यानित्याधनेकान्तरूपं वस्त्वेकान्तवादप्रतिषेधेनेति नानेकान्तज्ञानं मिथ्याज्ञानम् / - [सामान्य समानपरिणामरूप है ] यदि अवस्तुस्वरूप अर्थान्तरव्यावृत्तिभूत सामान्य को अनुमान से प्रसिद्ध होने का मानेंगे तो भी बाह्यवस्तु (स्वलक्षण) में प्रवृत्ति की अनुपपत्तिवाला दोष अचल हो रहेगा, क्योंकि जिस में प्रवृत्ति होती है वह तो उस अनुमान का विषय ही नहीं हुआ। यदि ऐसा कहें कि-हम सिर्फ अतद्रूप की व्यावृत्ति को ही अनुमान का विषय नहीं मानते किन्तु अतद्रूप से व्यावृत्तिवाले पदार्थ को ही अनुमान का विषय मानते हैं, अतः वस्तुविषयक अनुमान से वस्तु में प्रवृत्ति की उपपत्ति हो जायेगी।तो यहाँ प्रश्न है कि अतद्रूप से व्यावृत्त वह वस्तु समानपरिणामरूप सामान्य को छोड कर और कौनसी है ? दूसरी बात यह है कि आप प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण ही मानते हैं, इसमें से सामान्य का अनुभव अनुमान से होता नहीं है क्योंकि वह अनुभव लिंगजन्य नहीं है, किन्तु अविसंवादिप्रत्यक्षात्मक प्रमाण से ही उस सामान्य का अनुभव किया जाता है। वह इस प्रकार:-शाखाप्रशाखादि विभाग का अवलोकन करते समय दूर देश में प्रत्यक्षात्मक ज्ञान से सिर्फ़ वृक्षादिमात्र का बोध होता हुआ दिखता है यह अनुभव सिद्ध है-यदि यहाँ वृक्षसामान्य का बोध नहीं मानेंगे तो विरोध प्रसक्त होगा। ऐसा नहीं कह सकते कि-वहाँ केवल सादृश्य का बोध होता है, समानपरिणाम का नहीं-क्योंकि समानपरिणाम के विना कहीं भी सादृश्य ही नहीं हो सकता फिर उस बोध को समानपरिणामविषयक मानने के बदले सादृश्यविषयक क्यों मानें ?! यदि एसा कहें कि-सामान्य को यदि सामान्यपरिणामरूप मानेंगे तो वह समानपरिणाम तो वस्तु के सजातीय परिणाम से भी विभक्त ( =अतिरिक्त) होने से अन्य अन्य व्यक्तिओं में उसका अन्वय तो होगा नहीं, इस स्थिति में, एक व्यक्ति में शब्द का संकेत गृहीत रहने पर अथवा एक अधि.करण में लिंग का लिंगी के साथ सम्बन्ध गृहीत रहने पर, उस शब्द या लिंग से अन्य अन्य तज्जातीय व्यक्ति का प्रतिपादन शक्य न होगा-तो यह कोई दोष जैसा नहीं है। कारण, व्यक्ति व्यक्ति में वह विभक्तरूप से रहने पर भी, वास्तव में देशादिभेद का आश्रय न करके शब्द सामान्य और लिंग सामान्य का सिर्फ समानपरिणाममात्र के साथ ही संकेत यानी सम्बन्ध माना जाता है, वह समानपरिणाम यक्तिगत हो या अन्यव्यक्तिगत. यह बात अलग है। इस संबध का जिस को ग्रहण हआ होगा उसको अन्य स्थान में भी समानपरिणाममात्र से भेद यानी वस्तुविशेष का बोध उत्पन्न नहीं होगा किन्तु समानपरणितिरूप से वस्तुमात्र का बोध हो जायेगा अतः कोई दोष नहीं है / अग्रिम ग्रन्थ में

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