________________ 642 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यच्च 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इत्याद्यागमस्य गौणार्थप्रतिपादनपरत्वम् अभ्यधायि, तदत्यन्तमसंगतम् , मुख्यार्थबाधकसद्भावे तदर्थकल्पनोपपत्तेः / न च तत्र किचिद् बाधकमस्तीति प्रतिपादितम् / यच्च किंच, इष्टार्थाधिगमायां च' इत्याधुक्त तदपि सिद्धसाध्यतादोषाद् निःसारतया चोपेक्षितम् / यदपि 'नित्यसुखाभ्युपगमे च विकल्पद्वयम्' इत्याद्यभिहितं, तदप्यनभ्युपगमादेव निरस्तम् , नित्यस्य सुखस्यान्यस्य वा पदार्थस्यानभ्युपगमात् / यथाभूतं च स्वसंविदितं सुखं मोक्षावस्थायामात्मनस्तद्रूपतया परिणामिनः कथंचिदभिन्नमभ्युपगम्यते तथाभूतं प्राक प्रसाधितमिति / यच्च न रागादिमतो विज्ञानात् तद्रहितस्योत्पत्तियुक्ता' इत्यादि, तदप्यसारम् , रागादिरहितस्य सकलपदार्थविषयस्य ज्ञानोपादानस्य ज्ञानस्य सर्वज्ञसाधनप्रस्तावे प्रतिपादितत्वात् / यच्च विलक्षणादपि कारणाद विलक्षणकार्योत्पत्तिदर्शनाद् बोधाद बोधरूपतेति न प्रमाणमस्ति' इत्यादि, तदपि प्रतिविहितम् अचेतनाच्चेतनोत्पत्त्यभ्युपगमे चार्वाकमतप्रसक्तेः परलोकाभावप्रसक्त्या / परलोकसद्भावश्च प्राक् प्रसाधितः / यच्च 'ज्ञानस्य ज्ञानान्तरहेतुत्वे न पूर्वकालभावित्वं क्योंकि वह प्रवृत्ति बुद्धिमानों की प्रवृत्ति है-इस अनुमान में आपने जो अनैकान्तिक दोष का प्रतिपादन किया है कि चिकित्साशास्त्रविहित उपाय का अनुष्ठान करने वाले रोगीओं की औषधपानादि में प्रवत्ति अनिष्ट के निवारणार्थ होती है-यह अनैकान्तिक दोष वास्तव में यहाँ निरवकाश है क्योंकि वहाँ अनिष्ट (रोग) के निवारण द्वारा आरोग्यसुख की प्राप्ति स्वरूप इष्टप्राप्ति के लिये ही प्रवृत्ति होती है। दूसरी बात,-हम ऐसा नहीं मानते है कि वीतराग मुमुक्षुओं की मोक्षार्थ प्रवृत्ति मोक्षसुख के राग से होती है, क्योंकि हमारा सिद्धान्त है कि उत्तम साधक संसार या मुक्ति, सर्वत्र नि:स्पृह होता है। [ बाधक के विना गौणार्थं कल्पना असंगत ] तदुपरांत, 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इस वेदवाक्य को आपने मुख्यार्थक न मानकर गौणार्थक होने का कहा है वह भी असंगत है, मुख्यार्थ में बाधक प्रसिद्ध होने पर ही उसके गौणार्थक होने की कल्पना संगत हो सकती है, अन्यथा नहीं, उक्त वेदवाक्य को मुख्यार्थक मानने में कोई ठोस बाधक नहीं है यह तो कहा जा चुका है / तथा यह जो आपने कहा है कि इष्टार्थप्राप्ति के लिये मुमुक्षु की प्रवृत्ति रागमूलक हो जाने से मोक्षप्राप्ति नहीं हो सकेगी-यह तो सिद्धसाधनदोष के कारण नि:सार होने से उपेक्षणीय है / आशय यह है कि मुमुक्षु सर्वत्र निःस्पृह होता है, यदि वह इष्टप्राप्ति के लिये प्रवत्ति करेगा तो मुक्त नहीं हो सकेगा, यह निःसंदेह है। तथा, "नित्यसुख को मानने में दो विकल्प हैं.... नित्यसुख स्वप्रकाश आत्मरूप है या उससे भिन्न है” इत्यादि....जो आपने कहा था वह दोनों विकल्प नित्यसख के अस्वीकार से ही निरस्त हो जाता है। हम सुख या किसी भी अन्य वस्तु को एकान्त नित्य मानते ही नहीं / मुक्तावस्था में सुखरूप में परिणामिआत्मा से कथंचिद् अभिन्न ऐसे स्वसंविदित सुख को हम मानते हैं और उसकी पहले सिद्धि की जा चुकी है। यह जो आपने कहा है रागादिग्रस्त विज्ञान से रागरहित विज्ञान की उत्पत्ति युक्त नहीं है...इत्यादि, वह भी असार है, क्योंकि ज्ञान ही रागादिशून्य और सकल वस्तु को विषय करने वाले ज्ञान का उपादान कारण है यह सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण में हमने सिद्ध किया है / यह जो कहा था-विलक्षण कारण से भी विलक्षण कार्य की उत्पत्ति दीखती है इसलिये बोध से ही उत्तरकार्य में बोधरूपता होने की बात में कोई प्रमाण नहीं है-इस कथन का प्रतिकार पहले हो