________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद 59 [३-प्रामाण्यनिश्चयो न स्वतः-उत्तरपक्षः ] 'नापि प्रामाण्यं स्वनिश्चयेऽन्यापेक्ष' [पृ०२१] इत्युक्त यत् तदप्यसत, यतो निश्चयः तत्र भवन् कि A निनिमित्तः उत B सनिमित्तः इति कल्पनाद्वयम् / A तत्र न तावन्निनिमित्तः, प्रतिनियतदेशकालस्वभावाभावप्रसङ्गात् / B सनिमित्तत्वेऽपि कि B1 स्वनिमित्त उत B2स्वव्यतिरिक्तनिमित्तः ? न तावत् B1स्वनिमित्तः, स्वसंविदितप्रमाणानभ्युपगमात् मीमांसकस्य / B2अथ स्वव्यतिरिक्तनिमित्तः, तत्रापि वक्तव्यम्-तन्निमित्तं किं B2a प्रत्यक्षम्, B2b उतानुमानम् ? अन्यस्य तन्निश्चायकस्याऽसम्भवात् / तत्र यदि प्रत्यक्षं, तदयुक्त, प्रत्यक्षस्य तत्र व्यापाराऽयोगात् / तद्धीन्द्रियसंयुक्त विषये तव्यापारादुदयमासादयत् प्रत्यक्षव्यपदेशं लभते / न चेन्द्रियाणामपिरोक्षतालक्षणेन फलेन तत्संवेदनरूपेण वा सम्प्रयोगः, येन तयोर्यथार्थत्वस्वभावं प्रामाण्यमिन्द्रियव्यापारजनितेन प्रत्यक्षेण निश्चीयते। [संवाद की अपेक्षा दिखाने में चक्रक आदि दोष नहीं है ] यह जो कहा गया कि-प्रमाण अगर संवाद की अपेक्षा रख कर अपने कार्य में प्रवृत्ति करता है तो चक्रक दोष की आपत्ति होगी-यह कथन भी युक्त नहीं है। क्योंकि पहले वस्तु का बोध होता है, संवाद मीलने पर 'यह बोध यथावस्थितार्थपरिच्छेदस्वरूप प्रमाणात्मक ज्ञान है' यह निश्चय होता है / ऐसा निश्चय ही प्रमाण का कार्य है। इस वस्तु स्थिति का इनकार नहीं किया जा सकता। हाँ, प्रमाण के ऐसे स्वकार्य में संवाद की अपेक्षा किस प्रकार है एवं इसमें चक्रक दोष कैसे नहीं लगता? इसका प्रतिपादन आगे करेंगे। (यदपि अथ गृहीताः....) एवं 'अथ गृहीताः कारणगुणा:....अर्थात् कारण के गुण गृहीत होने पर प्रमाण के कार्य में सहकारी बनते हैं या गहीत न होने पर भी सहकारी बनते हैं'........इत्यादि जो कहा गया था वह आपका कथन आपकी परशास्त्र-अनभिज्ञता का सूचक है। अर्थात् , प्रतिवादी का सिद्धान्त न जानते हुए आप ऐसा कह गये हैं, क्योंकि प्रतिवादी ने 'प्रमाण अपने कार्य में कारणगुण के ज्ञान की अपेक्षा रख कर प्रवृत्त होता है' ऐसा नहीं माना है। ( यच्चोक्त, उपजायमानं....) यह भी जो आपने कहा था-प्रमाण उत्पन्न होता हुआ अर्थपरिच्छेद शक्ति संपन्न होता है-वह ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ अर्थतथात्वपरिच्छेद की शक्ति क्या है ? यही कि अविसंवादित्व, अर्थात् विसंवाद न होना, और यह तो पर की अपेक्षा से ही जाना जा सकता है। इस वास्ते अविसंवादित्व रूप अर्थतथात्वपरिच्छेद शक्ति स्वतः ज्ञात नहीं होगी। एवं प्रमाण अपने कार्य में जब ऐसे अविसंवादित्व की अपेक्षा करता है तब फलित यह हुआ कि प्रमाण स्वकार्य में परतः यानी परावलम्बी है। [ प्रमाण की स्वकार्य में स्वतः प्रवृत्ति के पक्ष का खण्डन समाप्त ] [३-प्रामाण्य का निश्चय स्वतः नहीं होता-उत्तरपक्ष ] यह जो आपने कहा था कि 'प्रामाण्य अपने निश्चय में भी अन्य की अपेक्षा नहीं करता' यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वहां दो प्रकार के विकल्प खडे होते हैं A-प्रामाण्य का निश्चय कारणनिरपेक्ष उत्पन्न होता है या B कारणसापेक्ष ? A कारणनिरपेक्ष उत्पन्न होता है यह नहीं मान सकते, क्योंकि इसमें 'नियतदेश-नियतकाल में एवं नियतस्वभावयुक्त उत्पन्न होना' यह नहीं बन सकेगा / अर्थात् ,