________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 235 एतेन 'प्रागनुपलब्धस्य रासभस्य कुम्भकारसंनिधानानन्तरमुपलभ्यमानस्य तत्कार्यता स्यादिति निरस्तम् / तथाहि-तत्रापि यदि रासभस्य तत्र प्रागसत्त्वम्, अन्यदेशादनागमनम् , अन्या:कारणत्वं च निश्चेतु शक्येत तदा स्यादेव कुम्भकारकार्यता, केवलं तदेव निश्चेतुमशक्यम् / एवं तावदनुपलम्भपुरस्सरस्य प्रत्यक्षस्य तत्साधनत्वमुक्तम् / तथा प्रत्यक्षपुरस्सरोऽनुपलम्भोऽपि तत्साधनः-येषां संनिधाने प्रवर्त्तमानं तव कार्य दृष्टं तेषु मध्ये यदैकस्याप्यभावो भवति तदा नोपलभ्यते, तत् तस्य कारणमितरत् कार्यम् / न चाग्नि-काष्ठादिसंनिधाने भवतो धूमस्यापनीते कुम्भकारादावनुपलम्भोऽस्ति, अग्न्यादौ त्वपनीते भवत्यनुपलम्भः। एवं परस्परसहितौ प्रत्यक्षानुपलम्भावभिमतेष्वेव कार्यकारणेषु निःसंदिग्धं कार्यकारणभावं साधयतः। [प्रत्यक्षानुपलम्भ से धूम में अग्निजन्यत्वसिद्धि ] 'कार्य कारणभाव केवल दर्शनाऽदर्शन गम्य है ऐसा जो आपने कहा था वह भी ठीक नहीं है क्योंकि वह विशिष्ट प्रकार के प्रत्यक्षानुपलम्भ नामक प्रमाण से उपलभ्य है। [ दर्शनादशन आर प्रत्यक्षानुपलम्भ समानार्थक नही नार्थक नहीं है ] यही प्रमाण जब कार्य और कारणरूप से अभिमत पदार्थयुगल को विषय बनाता है तब 'प्रत्यक्ष' कहा जाता है और जब दोनों से शुन्य अन्य किसी वस्तु को विषय करता है तब 'अनुपलम्भ' शब्द से कहा जाता है। ऐसा होता है कि कभी कभी प्रथम अनुपलम्भ और बाद में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति होती है और उससे कार्यकारणभाव सिद्ध होता है, तो कभी कभी प्रथम प्रत्यक्ष और बाद में अनुपलम्भ की प्रवृत्ति होने से कार्यकारणभाव सिद्ध होता है / जैसे-प्रथम कल्प द्वारा इस प्रकार व्यवस्था की जाती है-धूम के कारणरूप से अभिमत जो अग्नि आदि हैं उनका संनिधान होने के पूर्व वहाँ धूम उपलब्ध नहीं होता था यानी धूम का अनुपलम्भ था, किन्तु अग्नि आदि का संनिधान होने पर धूम का उपलम्भ (प्रत्यक्ष) होने लगता है-अतः धूम अग्नि आदि के कार्यरूप में निश्चित किया जाता है। यह भी इस प्रकार जो तोन प्रकार अभी बताये जा रहे हैं उनके बल पर ही यह कहना शक्य हो सकता है कि धूम अग्निजन्य नहीं है-१-अगर धूम अग्नि प्रज्वालन के पूर्व भी वहाँ उपस्थित होता, 2 अथवा, अन्य स्थान से धूम अग्निदेश में आ जाता, ३-अथवा, धूम का कोई अग्निभिन्न हेतु होता / किन्तु ये तीनों प्रकार अनुपलम्भ पूर्वक प्रत्यक्ष से विध्वस्त हो जाते हैं / [ गधे में कुम्भकारनिरूपित कार्यता आपत्ति का निराकरण ] पूर्वोक्त तीन प्रकार का निराकरण होने से, यह जो किसी ने कहा है वह भी ध्वस्त हो जाता है कि-'पूर्व में अनुपलब्ध गर्दभ कुभकारादि के संनिधान के बाद उपलब्ध होता है तो वह भी कुम्भकार का कार्य हो जायेगा'-यह इसलिये ध्वस्त हो जाता है कि- 'गधा वहाँ पहले नहीं ही हो सकता, अथवा वह अन्य स्थान से यहाँ नहीं आया है, अथवा गर्दभ का अन्य कोई हेतु नहीं ही है' ऐसा निश्चय किसी प्रकार किया जा सकता तब तो गधा कुम्भकार का कार्य हो सकता था ( किंतु यह निश्चय ही अशक्य है / )-इस प्रकार अनुपलम्भपूर्वक प्रत्यक्ष से कार्यकारणभावसिद्धि की बात हुयी। तदुपरांत, प्रत्यक्षपूर्वक अनुपलम्भ से भी कार्यकारण भाव की सिद्धि इस प्रकार है-जिन के संनिधान में जिस वस्तु की उपस्थिति (उत्पत्ति) देखी जाती है उन पदार्थो (कारणों) में से यदि किसी एक का भी अभाव हो जाय तब उस वस्तु की उपलब्धि यदि नहीं होती है ऐसे स्थल में जिसका अभाव तद् वस्तु की अनुपलब्धि का प्रयोजक हुआ वही उसका कारण है और जिस वस्तु की अनुपलब्धि