________________ प्रथमखण्ड-का०१-परलोकवादः 343 किच स्वसंविदितज्ञानानभ्युपगमे 'प्रतीयतेऽयमर्थो बहिर्देशसम्बन्धितया' इत्यत्र प्रतीतेर्व्यवस्थापिकाया अप्रतीतत्वेनाऽव्यवस्थितौ व्यवस्थाप्यार्थस्य न व्यवस्थितिः स्यात, नहि स्वयमव्यवस्थित खरविषाणादि कस्यचिद् व्यवस्थापकमुपलब्धम / अथ प्रतीतेरसंविदितत्वेऽपि एकार्थसमवेतानन्तरप्रतीतिव्यवस्थापितत्वेन नाऽव्यवस्थितत्वं, तहि तदेकार्थसमवेतानन्तरप्रतीतेरप्यपरतथाभूतप्रतीत्यव्यवस्थापितत्वेनार्थव्यवस्थापनप्रतीतिव्यवस्थापकत्वमिति पुनरपि तथाभूताऽपरा प्रतीतिः प्रतीतिव्यवस्थापिकाऽभ्युपगंतव्येत्यनवस्था / अथ प्रतीतिव्यवस्थापिका प्रतीतिः स्वसंविदितत्वेन स्वयमेव व्यवस्थितेति नायं दो स्थापिकाऽपि प्रतीतिस्तथा कि नाभ्युपगम्यते न्यायस्य समानत्वात् ? अथ प्रतीतिरप्रतीताऽपि प्रतीत्यन्तरव्यवस्थापिका, तहि प्रथमप्रतीतिरप्यव्यवस्थिताऽप्यर्थव्यवस्थापिका भविष्यतीति "नाऽग्रहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" [ ] इति वचः कथं न परिप्लवेत ? 'प्रतीतोऽर्थः' इति विशेष्यप्रतिपत्तौ प्रतीतिविशेषणानवगमेऽपि विशेष्यप्रतिपत्त्यभ्युपगमात् / ज्ञानस्वप्रकाशताविरोधी ने जड में प्रकाशत्वापत्ति के विरुद्ध जैसे यह निवेदन किया, उसके समक्ष व्याख्याकार कहते हैं कि ऐसा निवेदन ज्ञान की स्वप्रकाशता में भी शक्य है जैसे-नीलादिसंवेदन का भीतर में स्वसंवेदनविषयत्वरूप से ही प्रत्क्षानुभव होता है, अतः ज्ञान में स्वप्रकाशता असिद्ध नहीं है, जब यह प्रत्यक्ष सिद्ध है तब उसमें 'स्व में क्रिया विरोध' का उद्भावन करना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जो अनुभवसिद्ध होता है वहाँ विरोध असिद्ध है। तथा, ज्ञान स्वप्रकाश नहीं है-इस अनुमान की सिद्धि के लिये आप जो हेतु लगायेंगे वह भी प्रत्यक्षबाधित पक्ष विषयक हो जाने से अपने साध्य को सिद्ध नहीं कर पायेगा यह सब उभय पक्ष में समान है / [ असंविदित प्रतीति से अर्थव्यवस्था अशक्य ] यह भी सोचिये कि-ज्ञान को यदि स्वप्रकाश नहीं मानेंगे तो 'यह अर्थ बाह्यदेश के सम्बन्धोरूप में प्रतीत होता है' ऐसी जो व्यवस्थाकारक प्रतीति है उससे व्यवस्थाप्य अर्थ को व्यवस्था ही नहीं हो सकेगी, क्योंकि आपके मत से व्यवस्थापक प्रतीति (=स्वसंविदित) न होने से स्वयं ही अव्यवस्थित है। [ जो वस्तु स्वयं ही अव्यवस्थित है वह दूसरे की व्यवस्था कैसे करेगी ? ] शससीगादि जो स्वयं ही अस्थित है उससे किसी वस्तु की व्यवस्था होती हो-ऐसा देखा नहीं है / यदि यह कहा जाय- 'प्रतीति स्वयं भले स्वसंविदित न हो किन्तु प्रतीति की एकार्थसमवेत अन्य प्रतीति, अर्थात् उस प्रतीति के आश्रय आत्मा में ही अग्रिमक्षण में जो दूसरी प्रतीति होगी ( जिसको न्यायमत में अनुव्यवसाय कहा जाता है) उसी से प्रथमजात प्रतीति की व्यवस्था हो जाने से प्रतीति में अव्यवस्थितत्व जैसी कोई बात ही नहीं है।"-तो इस कथन में अनवस्था दोष लगेगा, वह इस प्रकारएकार्थसमवेत द्वितीयक्षण वाली प्रतीति की यदि ततीयक्षणवाली अन्य एकार्थसमवेत प्रतीति से व्यवस्था नहीं मानेंगे तो उससे अर्थव्यवस्थाकारक प्रथमजात प्रतीति की व्यवस्था ही नहीं हो सकेगी। अत: द्वितीयक्षण की प्रतीति की व्यवस्था तृतीयक्ष ण की प्रतीति से, उसकी भी चतुर्थक्षण की प्रतीति से....... इस प्रकार कहीं भी अन्त नहीं आयेगा। [प्रतीति गृहीत न होने पर अर्थ व्यवस्था अनुपपन्न ] यदि प्रथमजातप्रतीतिव्यवस्थापक द्वितीय प्रतीति की व्यवस्था स्वतः ही मान लेंगे, अर्थात् द्वितीयप्रतीति को स्वसंविदित मानेंगे, तो यद्यपि अनवस्था दोष तो नहीं होगा किन्तु प्रश्न यह है