________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ अव्यतिरिक्ता तदात्मनस्तबुद्धिस्तथापि तदनुपपत्तिः, न हि तदेव तेनैव तद्वद् भवति / किं च, तदात्मनस्तबद्धेरव्यतिरेके यदि तदात्मनि तद्बुद्धेरनुप्रवेशस्तदा बुद्धरभावाद् बुद्धिविकलो गगनादिवद् जडस्वरूपस्तदात्मा कथं जगत्स्रष्टा स्यात् ? बुद्धयादिविशेषगुणगणवैकल्ये च तदाऽत्मनः, अस्मदाद्यात्मनोऽप्यात्मत्वेनैव तद्वैकल्याद् मुक्तात्मनः इव संसारित्वं न स्याव , नवानां विशेषगुणानामात्यन्तिकक्षयोपेतस्यात्मनो मुक्तत्वाभ्युपगमात् तस्य चास्मदाद्यात्मस्वपि समानत्वात् भवदभ्युपगमेन / अथ आत्मत्वाऽविशेषेऽपि तदात्मा अस्मदाद्यात्मभ्यो विशिष्टोऽभ्युपगम्यते तहि कार्यत्वाऽविशेषेऽपि घटादिकार्येभ्यः स्थावरादिकार्यमकर्तृ कत्वेन विशिष्टं कि नाभ्युपगम्यते ? तथा च न कार्यत्वादिलक्षणो हेतुरनुपलभ्यमानकर्तृ कैः स्थावरादिभिरव्यभिचारी स्यात् / जब कि आप वहां अतिरिक्त सम्बन्ध को न मान कर स्वत: ही समवाय और समवायी का सम्बन्ध मानते हो। यदि दूसरे समवाय से उनका अभिसम्बन्ध मानेंगे तो उस समवाय को सम्बन्ध करने के लिये नये नये समवाय की कल्पना लता ( =अनवस्था) इतनी फैलेगी जो आकाशतल को जा मिलेगी। यदि 'समवायी विशेष्य और समवाय विशेषण' इस प्रकार विशेषणविशेष्यभावात्मक सम्बन्ध के बल से उनका अभिसम्बन्ध मानेंगे तो यहाँ विशेषण-विशेष्यभावात्मक सम्बन्ध के सम्बन्ध के लिये भी अन्य-अन्य विशेषण-विशेष्यभावात्मक सम्बन्ध की खोज करनी पड़ेगी-इस प्रकार उसी अनवस्था का पुनरवतार होता रहेगा। यदि विशेषण-विशेष्यभावात्मक सम्बन्ध का अभिसम्बन्ध पूर्वोक्त समवाय से मान लेंगे तो दोनों एक दूसरे के आधीन बन जाने से स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय दोष लगेगा। यदि उसका सम्बन्ध स्वतः हो मान लगे तो पूर्ववत् बुद्धि आदि का भी अपने अपने आधार में सम्बन्ध हो जायेगा अत: समवाय की कल्पना निष्फल है। सारांश, समवाय किसी भी प्रमाण का विषय नहीं है। अग्रिम ग्रन्थ में उचित स्थान पर और भी उसके निषेध की युक्तियां दिखायेंगे अतः अब उसको रहने दो। कहना तो यही है कि उपरोक्त रीति से बुद्धि यदि ईश्वरात्मा से भिन्न ( पृथक् ) होगी तो सम्बन्ध की घटना न होने से मत् (मतुप्) प्रत्यय की संगति नहीं हो सकेगी। [समवाय की प्रासंगिक चर्चा समाप्त ] [ ईश्वरात्मा और बुद्धि का अभेदं असंगत ] ___ यदि ईश्वरात्मा से उसकी बुद्धि को अभिन्न (अपृथक् ) माना जाय तो भी मतुप् प्रत्यय को संगति नहीं है क्योंकि वह एक वस्तु अपने से ही कभी तद्वत् ( यानी अपनेवाली ) नहीं हो सकती। तदुपरांत, ईश्वरात्मा से उसकी बुद्धि का भेद न होने पर a ईश्वर में बुद्धि का अनुप्रवेश मानेंगे या b बुद्धि में ईश्वर का अनुप्रवेश मानेंगे? a यदि बुद्धि का ईश्वर में ही अनुप्रवेश मानगे तो बुद्धि जैसा कुछ भी नहीं रहेगा अत: आकाशादि की तरह ईश्वरात्मा भी बुद्धिशून्य जडस्वरूप हो जायेगा, फिर वह जगत् का निर्माता कैसे हो सकेगा? उपरांत, ईश्वरात्मा यदि बुद्धि आदि विशेषगुण से शून्य होगा तो आत्मत्व दोनों जगह समान होने से अपने लोगों का आत्मा भी उससे शून्य ही होगा, फलतः जैसे मुक्तात्मा विशेषगुणों के उच्छेद के कारण संसारी नहीं माना जाता उसी तरह अपने लोगों में भी संसारीत्व नहीं घटेगा। बुद्धि-सुख-दुख-इच्छा-द्वेष प्रयत्न-भावना और धर्माधर्म ये नव