________________ प्रथमखण्ड-का० 1- ईश्वरकर्तृत्वे उ०जाति० 453 ननु यदि व्यक्तिनिबन्धनाऽनुगताकारा मतिः, तथा सति यथा खण्ड-मुण्डव्यक्तिदर्शने 'गौगौं:' इति प्रतिपत्तिरुदेति तथा गिरिशिखरादिदर्शनेऽपि 'गौगौंः' इत्येतदाकारा प्रतिपत्तिर्भवेत् व्यक्तिभेदाऽविशेषात् / तदयुक्तम् -भेदाऽविशेषेऽपि खण्ड-मुण्डादिव्यक्तिषु 'गौगौंः' इत्याकारा मतिरुदयमासादयन्ती समुपलभ्यत इति ता एव तामुपजनयितु समर्था इत्यवसीयते, न पुगिरिशिखरादिषु 'गौगौः' इति मतिहष्टेति न ते तन्निबन्धनम् / यथा च आमलकीफलादिषु यथाविधानमुपयुक्तेषु व्याधिविरतिलक्षणं फलमुपलभ्यत इति तान्येव तद्विधौ समर्थानोत्यवसीयते, भेदाऽविशेषेऽपि न पुनस्त्रपुष-दध्यादीनि / अथ भिन्नेष्वपि भावेषु 'सत्-सत' इति मतिरस्ति, विभिन्नेषु च भावेषु यदेकत्वं तदेव जातिः / तत्रोच्यते-तदेकत्वं घट-पटादिषु किमन्यत् उताऽनन्यत् ? न तावदन्यत् , तस्याऽप्रतिभासनादित्युक्तेः / नाप्यनन्यत , एकरूपाऽप्रतिभासनात् , नहि घटस्य पटस्य चैकमेव रूपं प्रतिभाति, सर्वात्मना प्रतिद्रव्यं भिन्नरूपदर्शनात् / तस्मादप्रतीतेरभिन्नाऽपि जाति स्ति, बुद्धिरेव तुल्याकारप्रतिभासा 'सत्-सत्' इति शब्दश्च दृश्यत इति तदन्वय एव युक्तः न जात्यन्वयः, तस्याऽदर्शनात् / न च बुद्धिस्वरूपमप्यपरबुद्धिस्वरूपमनुगच्छति इति न तदपि सामान्यमित्येकानुगतजातिवादो मिथ्यावादः / [वाह्यार्थ के रूप में जाति का भान नहीं होता ] केशोण्डुकादि तिमिर रोगी के ज्ञान में बाह्यरूप से प्रकाशित होने पर भी उत्तरकालीन बाधक से उस ज्ञान का विषय बाधित होने के कारण केशोण्डुकादि को कोई वास्तव नहीं मानते / जाति की बात तो इससे भी निराली है, किसी भी ज्ञान में बाह्यरूप से जाति भासित ही नहीं होती तो उसको सत्रूप से स्वीकृति का पात्र कैसे माना जाय ? सच बात यह है कि घट-पट का जब प्रतिभास होता है तब 'सत्-सत्' इस तुल्य आकार से अपनी बुद्धि ही भासित होती है। - नैयायिक:-जब जाति जैसा कोई बाह्य पदार्थ ही नहीं है तब बुद्धि का एकरूप प्रतिभास भी कैसे होगा? बाह्यनिमित्त के विना ही एकरूपाकार बुद्धि की उत्पत्ति भी संगत नहीं है / . उत्तरपक्षीः-कौन कहता है कि जाति की बुद्धि बाह्य किसी निमित्त के विना ही होती है ? निमित्त तो है ही किन्तु वह जातिरूप नहीं है / बाह्य घट-पटादि कुछ व्यक्तियाँ ही जाति की बुद्धि यानी एकाकार प्रतीति में निमित्त बनती हैं / [ सर्वत्र समानाकार प्रतीति की आपत्ति मिथ्या है ] नैयायिकः-अनुगताकारवाली बुद्धि यदि केवल व्यक्तिमूलक ही होती है तो जैसे खंड और मंड गो-व्यक्ति को देखने पर गाय-गाय'-इस प्रकार अनगताकार बद्धि होती है, उसी तरह गिरि-शिखरादि को देखने पर भी 'गाय गाय' इस प्रकार अनुगत बुद्धि होनी चाहिये, क्योंकि व्यक्तिभेद तो खंड और मुंड गो-व्यक्ति में है वैसे ही गो और गिरि-शिखरादि में भी है-उसमें कोई विशेषता नहीं है / उत्तरपक्षी:-यह बात गलत है / व्यक्तिभेद -तुल्य होने पर भी खंड-मुंडादि व्यक्ति ही 'गायगाय' ऐसी समानाकार प्रतीति के उत्पाद में समर्थ प्रतीत होती है, गिरि-शिखरादि समर्थ प्रतीत नहीं होते, क्योंकि खंड-मुंड व्यक्ति को देखने पर ही 'गाय-गाय' इस प्रकार की बुद्धि का उदय देखा जाता है, गिरि-शिखरादि को देखने पर 'गाय-गाय' ऐसी बुद्धि का उदय नहीं देखा जाता है / उदा० आमला के फल और गडूची आदि में परस्पर भेद होने पर भी विधि अनुसार उसका प्रयोग करने पर रोग