Book Title: Sammati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Abhaydevsuri
Publisher: Motisha Lalbaug Jain Trust

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Page 609
________________ 576 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 / अथ शरीरसंयुक्त प्रात्मप्रदेशो देवदत्तः / स काल्पनिक: पारमाथिको वा ? काल्पनिकत्वे 'काल्पनिकात्मप्रदेशगुणाकृष्टाः पश्वादयः, तथाभूतात्मप्रदेशं प्रत्युपसर्पणवत्त्वात्' इति तद्गुणानामपि काल्पनिकत्वं साधयेत् / तथा च सौगतस्येव तद्गुणकृतः प्रेत्यभावोऽपि न पारमाथिकः स्यात् / न हि कल्पितस्य पावकस्य रूपादयः तत्कार्य वा दाहादिकं पारमार्थिक दृष्टम् / पारमाथिकाश्चेदात्मप्रदेशाः तेऽपि यदि ततोऽभिन्नास्तदात्मैव ते इति न पूर्वोक्तदोषपरिहारः। भिन्नाश्चेत् तहि तद्विशेषगुणाकृष्टाः पश्वादय इति तेषामेवात्मत्वप्रसक्तिरित्यन्यात्मपरिकल्पना व्यर्था / तेषां च न द्वीपान्तरतिभिर्मुक्तादिभिः संयोग इति 'अदृष्टं स्वाश्रयसंयुक्तेऽन्यत्र क्रियाहेतुः' इति व्याहतम् / संयोगे वा आत्मवत् इत्यनिवृत्तो व्याघातः। अथ तेषामध्यपरे शरीरसंयुक्ताः प्रदेशाः देवदत्तशब्दवाच्याः, तत्राप्यननन्तरदूषणमनवस्थाकारि / अथात्मानमन्तरेण कस्य ते प्रदेशाः स्युरिति तत्प्रदेश्यपर आत्मेत्यभ्युपगमनीयम् / नन्वर्थान्तरधर्म, यह सब प्रतिवादी को स्वरुचि का विलासमात्र है। यदि यह कहें कि शरीरसंयुक्त आत्मा यह' 'देवदत्त' पद का अर्थ है-तो भी निस्तार नहीं है क्योंकि आत्मा नित्य और व्यापि होने से उसके शाश्वत संनिधान को कोई हठा नहीं सकता। यह तो स्पष्ट है कि आकाश को घटसंयुक्त कह देने मात्र से वह मेरुपर्वतादि का असंनिहित नहीं हो जाता। [शरीरसंयुक्त आत्मप्रदेशों को 'देवदत्त' नहीं कह सकते ] यदि ऐसा कहें कि शरीर से संयुक्त आत्मा के जितने आत्मप्रदेश हैं वे ही. 'देवदत्त' पदवाच्य है।-तो यहाँ प्रश्न है कि वे आत्मप्रदेश काल्पनिक है या पारमार्थिक ? यदि काल्पनिक होंगे तब तो 'पशु आदि देवदत्त के गुण से आकृष्ट हैं' इसका अर्थ हुआ 'पशु आदि काल्पनिक आत्मप्रदेशों के गुण से आकृष्ट हैं, क्योंकि पशु आदि का आकर्षण काल्पनिक आत्मप्रदेश स्वरूप देवदत्त के प्रति होता है। तात्पर्य, कल्पित आत्मप्रदेशों के गुण भी काल्पनिक हो जायेगे / फलत: बौद्ध के मत में जैसे पारमार्थिक कुछ भी परलोक जैसा नहीं होता वैसे काल्पनिकगुणनिष्पन्न परलोक भी आपके मत में पारमार्थिक नहीं होगा / कल्पित अग्नि के रूपादि अथवा कार्यभूत दाह पाकादि कभी पारमार्थिक दिखता नहीं। यदि आत्मप्रदेशों को वास्तविक मानेंगे तो आत्मा से वे भिन्न हैं या अभिन्न यह सोचना पड़ेगा। यदि अभिन्न मानेंगे तब तो आत्मा ही शरीर से संयुक्त आत्मप्रदेशरूप हुआ, और शरीर संयुक्त आत्मा को देवदत्तपदवाच्य मानने में जो दोष है वह तो अभी कह आये हैं, उसका परिहार नहीं हो सकेगा। यदि उन्हें भिन्न मानेंगे तो आपके अनुमान से इतना ही सिद्ध होगा कि (आत्मा से भिन्न) आत्मप्रदेशों के विशेषगुण से, देवदत्त की ओर पशु आदि आकृष्ट होते हैं। तात्पर्य, आत्मप्रदेशों का ही अपर नाम आत्मा हआ, फिर आत्मप्रदेशों से भिन्न स्वतंत्र आत्मा की कल्पना निरर्थक हो जायेगी। तदुपरांत, शरीर संयुक्त उन (आत्मभिन्न) आत्मप्रदेशों का द्वीपान्तरवर्ती मोतीयों के साथ संयोग भी नहीं है, इसलिये आपने जो अनुमान में कहा है कि 'अदृष्ट अपने आश्रय से संयुक्त अन्य वस्तु में क्रियाजनक होता है-यह कथन खंडित हो जायेगा। यदि उन आत्मप्रदेशों का दूरस्थ मोतीयों के साथ संयोग मानेंगे तो उनको व्यापक मानना पडेगा, फलत. आत्मा की व्यापकता मानने में पहले जैसे विरोध कहा है वही यहाँ भी प्रसक्त होगा। [ अन्य अन्य आत्मप्रदेश मानने में अनवस्था दोष ] यदि ऐसा कहें कि हम उन व्यापक आत्मप्रदेशों के भी नये आत्मप्रदेश देहसंयुक्त मानेंगे,

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