Book Title: Sammati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Abhaydevsuri
Publisher: Motisha Lalbaug Jain Trust

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Page 652
________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे उ० 616 B अथेहबुद्धयाऽवसेयः समवायः / न, इहबुद्धरधिकरणाध्यवसायरूपत्वात् / न चान्यस्मिन्नाकारे प्रतीयमानेऽन्याकारोऽर्थः कल्पयितुयुक्तः, अतिप्रसंगात् / ___C अथ समवायबुद्धया समवायः प्रतीयत इत्यभ्युपगमः, सोऽप्यनुपपन्नः, समवायबुद्धरनुपपत्तेः, न हि 'एते तन्तवः, अयं पटः, अयं समवायः' इति परस्परविविक्तं त्रितयं बहिर्गाह्याकारतया फस्याञ्चित् प्रतीतावुद्भाति, तथानुभवाभावात् / अथानुमानेन प्रतीयते / अयुक्तमेतत् , प्रत्यक्षाभावे तत्पूर्वकस्यानुमानस्याप्यप्रवृत्तः / सामान्यतोदृष्टाप नात्र वस्तुनि प्रवत्तंते, तत्प्रभवकार्यानुपलब्धः / न च इहबुद्धिरेव समवायज्ञापिका-"इह तन्तुषु पट: इति प्रत्ययः सम्बन्धनिमित्तः, अबाधितेहप्रत्ययत्वात् , 'इह कुण्डे दधि' इति प्रत्ययवत्" इति-विकल्पानुपपत्तेः। तथाहि-किं निमित्तमात्रमनेन प्रतीयते, उत सम्बन्धः ? यदि निमित्तमात्रं तदा सिद्धसाध्यता। अथ सम्बन्धः, स संयोगः समवायो वा ? सम्बन्ध क्या सम्बब्धत्वजातिवाला है ? b या अनेक उपादानों से जन्य है ? cया अनेक मे आश्रित है ? d या सम्बन्धाकार बुद्धि का विषय है ? e या सम्बन्धाकार बुद्धि का उत्पादक है ? ___a अगर कहें कि वह सम्बन्धत्वजातिवाला है तो यह अयुक्त है क्योंकि वह जातियुक्त होने से कभी समवायसम्बन्धरूप्र नहीं हो सकेगा। [ समवाय तो मात्र एक व्यक्ति रूप ही आपने माना है। ] b यदि कहें कि समवाय अनेक उपादानों से जन्य पदार्थ है तो वहाँ घटादि को भो समवाय सम्बन्ध रूप मानने की आपत्ति होगी क्योंकि घटादि भी अनेक उपादनों से जन्य होता है। यदि उसे अनेक : में आश्रित मानेंगे तो घट और जाति आदि में भी सम्बन्धत्व की अतिप्रसक्ति होगी क्योंकि घट और जात्यादि अनेक में आश्रित होते हैं। यदि उसे सम्बन्धाकार बुद्धि का उत्पादक कहा जाय तो लोचनादि भी सम्बन्धाकार बुद्धि के उत्पादक होने से लोचनादि को सम्बन्ध रूप मानना पड़ेगा। d यदि उसे सम्बन्धाकारबुद्धि ग्राह्य से मानेंगे तो घटादि में सम्बन्धत्व मानने की आपत्ति होगी, क्योंकि 'सम्बन्ध' शब्द का यदि घटादि अर्थ में आधुनिक संकेत किया जाय तो सम्बन्ध शब्द से होने वाली सम्बन्धाकारबुद्धि को विषयता घटादि में हो जायेगी। तदुपरांत, यदि सम्बन्ध और सम्बन्धभिन्न पदार्थों का एक साथ (समूहालम्बन) ज्ञान होगा तब सम्बन्धभिन्न वस्तु भी सम्बन्धाकार ज्ञान का विषय बन जाने से उसमें सम्बन्धत्व की आपत्ति होगी। यदि कहें कि-अन्तरात्मा में जो सम्बन्धाकार का अनुभव होता है वह सम्बन्धाकार ही सम्बन्धरूप है-तो समवाय और संयोग दोनों में अभेद प्रसक्त होगा क्योंकि संयोग का भो अन्तरात्मा में सम्बन्धाकार ही अनुभव होता है / आन्तर आकारभेद को दोनों का भेदक नहीं कह सकते, क्योंकि उन दोनों का अन्तरात्मा में सम्बन्धाकाररूप से ही अनुभव होता है अतः आन्तर आकारभेद ही असिद्ध है। [ इहबुद्धि और समवायबुद्धि से समवाय की प्रतीति अनुपपन्न ] __B यदि समवाय को 'इह' इस आकार की बुद्धि से ग्राह्य दिखाया जाय तो उससे समवाय की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि 'इह' यह बुद्धि तो अधिकरण को विषय करती है, समवाय को नहीं। जिस आकार की प्रतीति होती है उससे भिन्न आकार वाले अर्थ को उस प्रतीति का विषय मानना युक्त नहीं है, अन्यथा घटाकार प्रतोति को पटविषयक मानने को आपत्ति होगी। . C 'समवाय' इस आकार की बुद्धि से समवाय की प्रतीति होने की बात भी अयुक्त है, क्योंकि विचार करने पर 'समवाय' इस आकार की बुद्धि ही घट नहीं सकती। किसी भी प्रतीति में 'ये तन्तु,

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