________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे उ० 629 चाऽसमवायिकारणमन्तरेण न ज्ञानोत्पत्ति:.परलोकसाधनप्रस्तावे "तस्माद्यस्यैव संस्कारं नियमेनानुवर्तते / तन्नान्तरीयकं चित्तमतश्चित्तसमाश्रयम्" इति न्यायेन ज्ञानस्य ज्ञानोपादानत्वप्रतिपादनात , अन्यथा परलोकाभावप्रसंगात् , नित्यस्यात्मनः समवायिकारणत्वेन ज्ञानादिकं प्रति निषिद्धत्वात आत्ममन:संयोगस्य वाऽसमवायिकारणस्य प्रतिषेत्स्यमानत्वात निषिद्धत्वाच्च संयोगस्य निमित्तकारणस्य वा, प्रतिनियतत्वेन शरीराद्यभावेऽपि देशकालादेरात्मनो ज्ञानादिस्वभावस्योत्तरज्ञानाद्यवस्थारूपतया परिणमतः सहकारित्वसम्भवात् / ईश्वरज्ञानं च शरीरादिनिमित्तकारणविकलमप्यभ्युपगच्छति-तज्ज्ञानेऽपि नित्यत्वस्य प्रतिषिद्धत्वात्न पुनर्मुक्त्यवस्थायामात्मनस्तत्स्वभावस्येति सुस्थितं नैयायिकत्वं परस्य / ___ यत्तूक्तम् 'प्रारब्धकार्ययोर्धर्माधर्मयोरुपभोगात् प्रक्षयः संचितयोश्च तत्त्वज्ञानात्' इत्यादि, तदपि न संगतम् , उपभोगात् कर्मणः प्रक्षये तदुपभोगसमयेऽपरकर्मनिमित्तस्याभिलाषपूर्वकमनो-वाक्-काय रस्वरूपस्य सम्भवादविकलकारणस्य च प्रचरतरकर्मणः सद्भावात कथमात्यन्तिकः कर्मक्षयः ? ! सम्यग्ज्ञानस्य तु मिथ्याज्ञाननिवृत्त्यादिक्रमेण पापक्रियानिवृत्तिलक्षणचारित्रोपब हितस्याऽऽगामिकर्मानुत्पत्तिसामर्थ्यवत् संचितकर्मक्षयेऽपि सामर्थ्य संभाव्यत एव-यथोष्णस्पर्शस्य भाविशोतस्पर्शानुत्पत्ती समर्थस्य पूर्वप्रवृत्ततत्स्पर्शादिध्वंसेऽपि सामर्थ्यमुपलब्धम्-किन्तु परिणामिजीवाजीवादिवस्तुविषयमेव सम्यग्ज्ञानं न पुनरेकान्तनित्यानित्यात्मादिविषयम् , तस्य विपरीतार्थग्राहकत्वेन मिथ्यात्वोपपत्तेः / यथा चैकान्तवादिपरिकल्पित आत्माद्यों न संभवति तथा यथास्थानं निवेदयिष्यते। मिथ्याज्ञानस्य च मुक्तिहेतुत्वं परेणापि नेष्यत एव / अतो यदुक्तं 'यथैधांसि...' इत्यादि-तत् सर्वसंवररूपचारित्रोपबंहितसम्यग्ज्ञानाग्नेरशेषकर्मक्षये सामर्थ्यमभ्युपगम्यते-तत् सिद्धमेव साधितम् / ज्ञान के निमित्तकारणभूत शरीरादि तथा असमवायि कारणभूत आत्म-मन:संयोग का अभाव होने से ज्ञानोत्पत्ति अशक्य है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि हमने परलोकसिद्धिप्रकरण में ( 316-6 ) 'ज्ञान ही ज्ञान का उपादानकारण है' इस बात का समर्थन यह कहते हुए किया था कि-"चित्त जिसके संस्कार का नियमत: अनुसरण करता है, उसीका अविनाभावि मानना चाहिये, अत: चित्त, चित्त का आश्रित ( अर्थात् उससे उत्पन्न होने वाला ) सिद्ध होता है।" (317-1) यदि इस पूर्वोक्त कथन के अनुसार ज्ञान को ज्ञान का उपादान नहीं मानेंगे तो परलोक की सिद्धि आपद्ग्रस्त हो जायेगी। समवायिकारणभूत नित्य आत्मा को आप ज्ञानादि का उपादान नहीं कह सकते क्योंकि नित्य आत्मा में उपादानकारणत्व की सम्भावना का निषेध हो चुका है / आत्म-मनःसंयोग की असमवायिकारणता का निषेध आगे किया जायेगा / अथवा संयोग का पहले निषेध किया जा चुका है अतः उसकी निमित्तकारणता का भी निषेध हो ही गया है। शरीरादि का मुक्तिदशा में अभाव होने के कारण वे तो यद्यपि ज्ञानादि के सहकारीकारण नहीं हो सकते किन्तु देश-काल तो प्रतिनियत ही है, अर्थात् मुक्तदशा में भी रहने वाले ही है, अत: पूर्वज्ञानादिस्वभावरूप आत्मा का उत्तरज्ञानादिस्वभावरूप परिणाम होने में देश-काल को सहकारी मान सकते हैं। तात्पर्य, मुक्तदशाकालीन ज्ञानोत्पत्ति में कारणाभावरूप दोष भी नहीं है। दूसरी ओर, ईश्वरज्ञान में हमने नित्यत्व का प्रतिषेध कर दिया है, फिर भी नैयायिकवर्ग शरीरादि के विरह में भी ईश्वरज्ञान के अवस्थान को मानता है, किन्तु ज्ञानस्वभाववाले मुक्तात्मा में मुक्तिदशा में ज्ञानसद्भाव मानने में इनकार करता है-कितना अच्छा है उसका नैयायिकत्व (=न्यायवेत्तृत्व) ? !