________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे पूर्व० 613 यच्चेदम्-'विशिष्टभावनावशाद् रागादिविनाशः' इति-असदेतत् , निर्हेतुकत्वात् विनाशस्याभ्यासानुपपत्तेश्च / अभ्यासो ह्यस्थिते ध्यातरि अतिशयाधायकत्वादुपपद्यते न क्षणिके ज्ञानमात्रे इति / अत एव न योगिनां सकलकल्पनाविकलं ज्ञानमुत्पद्यते / न च सन्तानापेक्षयाऽतिशयः, तस्यैवाऽसम्भवाद् अविशिष्टाद् विशिष्टोत्पत्तेरयोगाच्च / तथाहि-पूर्वस्मादविशिष्टादुत्तरोत्तरं सातिशयं कथमुपजायत इति चिन्त्यम् / यच्च 'सन्तानोच्छितिनि.श्रेयसम्' इति, तत्र निर्हेतुकतया विनाशस्योपायवैयर्थ्यम् , प्रयत्नसिद्धत्वादिति / अन्ये तु "अनेकान्तभावनातो विशिष्टप्रदेशेऽक्षयशरीरादिलाभो निःश्रेयसम्” इति मन्यन्ते / तथा च नित्यभावनायां ग्रहः, अनित्यत्वे च द्वेष इत्युभयपरिहारार्थमनेकान्तभावना इति, एवं सदादिध्वपि योज्यम् / प्रत्यक्षं च स्वदेशकाल-कारणाधारतया सत्त्वम् परदेशादिष्वसत्त्वमित्युभयरूपता / तथा, घटादिमंदादिरूपतया नित्यः सर्वावस्थासूपलम्भात , घटादिरूपतया चानित्यस्तदपायात् , एवमात्माप्यात्मादिरूपतया नित्यः सर्वदा सद्भावात, सुखादिपर्यायरूपतया चानित्यस्तद्विनाशात् / एवं सर्वत्र स्वकार्येषु कर्तृत्वम् कार्यान्तरेषु चाकर्तृत्वमित्यूह्यम् , स्वशब्दाभिधेयत्वम् शब्दान्तरानभिधेयत्वं चेति / कैसे संगत होगा ? सारांश, सुषुप्ति अवस्था में विज्ञान की सत्ता संगत न होने से उसका पूर्ववर्ती ज्ञान अन्त्यज्ञान रूप में सिद्ध हुआ और इसीलिये एक सन्तानत्व का उसमें व्यभिचार भी तदवस्थ ही रहा। [अभ्यास से रागादिनाश की अनुपपत्ति ] यह जो कहते हैं कि विशिष्टभावना के अभाव से रागादि का विनाश होता है-यह भी गलत है क्योंकि नाश तो बौद्धमत में निर्हेतुक होने से विशिष्टभावनास्वरूप अभ्यास से उसके नाश की बात असंगत है / तथा क्षणिकवाद में अभ्यास भी घट नहीं सकता। यदि ध्याता स्थायि हो तभी एक ही व्यक्ति में नये नये अतिशय के उत्तरोत्तर आधान द्वारा अभ्यास की बात संगत हो सकती है किन्तु क्षणिकविज्ञानवाद में वह संगत नहीं है। जब अभ्यास क्षणिकवाद में संगत नहीं, तब योगियों को सकलकल्पनाजालविनिमुक्त ज्ञान की उत्पत्ति भी संगत नहीं हो सकती। यदि कहें कि-एक स्थायि व्यक्ति को न मानने पर भी सन्तान के आधार से अतिशयाधान द्वारा अभ्यास की बात संगत है-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि सन्तान ही सत्पदार्थरूप में सम्भव नहीं है, तथा पूर्वकालीन साधारण विज्ञान से उत्तरकालीनविशिष्ट ज्ञान की उत्पत्ति भी संगत नहीं है। फिर से देखिये कि पूर्वकालीन साधारण विज्ञानक्षण से उत्तरोत्तर सातिशय विज्ञान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? यह विचारणीय है। तदुपरांत, ऐसा जो बौद्धमत में कहा है कि-ज्ञानसन्तान का सर्वथा उच्छेद यही मोक्ष हैइस मत में यह दोष होगा कि नाश निर्हेतुक होने की मान्यता के कारण सन्तानोच्छेद के लिये कोई भी उपाय दिखाया जाय वह व्यर्थ ही होगा क्योंकि विनाश तो अनायास स्वयं ही सिद्ध होने वाला है। [ अनेकान्तभावना से मोक्षलाभ ] अन्य कुछ वादिलोग कहते हैं-अनेकान्त मत की भावना के बल से विशिष्ट स्थान में होने वाला अक्षय देह का लाभ यही मुक्ति है / जैसे देखिये वस्तु को यदि नित्य मान लेते हैं तो ग्रह (राग) हो जाता है और यदि अनित्य क्षणभंगुर मानते हैं तो द्वेष होने का सम्भव है, किन्तु नित्यानित्योभयरूप अनेकान्तमत की भावना से भावित हो जाने पर न राग होता है न द्वेष, दोनों का परिहार हो जाता है। इसी तरह सादि, अनादि, सान्त और अनन्त की चर्चा में भी अनेकान्त ही मानना चाहिये।