Book Title: Sammati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Abhaydevsuri
Publisher: Motisha Lalbaug Jain Trust

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Page 644
________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा अथ नेष्यत एवान्त्यज्ञानं सर्वदाऽऽरम्भात् / तथाहि-मरणशरीरज्ञानमपि ज्ञानान्तरहेतुः, जानदवस्थाज्ञानं च सुषुप्तावस्थाज्ञानस्येति / नन्वेवं मरणशरीरज्ञानस्यान्तराभवशरीरज्ञानहेतुत्वे गर्भशरीरज्ञानहेतुत्वे वा सन्तानान्तरेऽपि ज्ञानजनकत्वप्रसंगः, नियमहेतोरभावात् / 'अथेष्यत एवोपाध्यायज्ञानं शिष्यज्ञानस्य,' अन्यस्य कस्मान्न भवतीति ? अथ 'कर्मवासना नियामिके'ति चेत? न, तस्या विज्ञानव्यतिरेकेणाऽसम्भवात् / तथाहि-तादात्म्ये सति विज्ञानं बोधरूपतयाऽविशिष्टं बोधाच्च बोधरूपतेत्यविशेषेण विज्ञानं विदध्यात / है, अतः अच्छे न्यायवेत्ता उस वाक्य के यथाश्रुत अर्थ की ग्रहम नहीं करते हैं जैसे कि विषभक्षणादिप्रतिपादक वाक्य / सारांश, मुक्ति परमानन्दस्वभावरूप नहीं है / [ मुक्ति विशुद्धज्ञानोत्पत्तिस्वरूप भी नहीं है ] जो लोग मोक्ष में विशुद्धज्ञान की उत्पत्ति को मानते हैं वे भी ठीक नहीं कहते क्योंकि विज्ञानोत्पत्ति रागादिग्रस्त व्यक्ति को ही होती दिखाई देती है अतः रागादिरहित व्यक्ति को उसकी उत्पत्ति का सम्भव ही नहीं है / जैसे देखिये, यदि आप उत्तरज्ञान की बोधरूपता बोघहेतुक ही मानते हैं तो फिर उसी तरह रागादिरूपता भी माननी पड़ेगी क्योंकि ज्ञान और रागादि का आपके मत में भेद नहीं है / इसलिये यदि बोध से रागोपनि नहीं मानेंगे तो फिर बोध की उत्पत्ति का भी अभाव प्रसक्त होगा / तथा दूसरी बात यह है कि ज्ञान की उत्पत्ति ज्ञान से ही हो-इस में कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि असमान जातीय कारण से विलक्षण कार्यों की उत्पत्ति देखी जाती है / इसी लिये यदि आपसे पूछा जाय कि ज्ञान को ही उत्तरज्ञान का हेतु मानने में क्या हेतु है तो आप यह नहीं कह सकते कि उत्तरज्ञान का वह पूर्वकालभावि है अथवा समानजातीय है अथवा एकसन्तानगत है इसलिये वह उत्तरज्ञान का हेतु है ।-ऐसा इसलिये नहीं कह सकते कि- उक्त तीनों विकल्प में व्यभिचार दोष है / जैसे देखिये-यदि पूर्वकालभावि होने मात्र से उसको उत्तरज्ञान का हेतु माना जाय तो उत्तरज्ञान के समान क्षण में उत्पन्न अन्यज्ञानों में व्यभिचार होगा क्योंकि पूर्वकालभावित्व उनके प्रति होने पर भी उन ज्ञानों की हेतुता नहीं है। समानातीय होने से यदि पूर्वज्ञान को उत्तरज्ञान का हेतु मानेंगे तो उत्तरज्ञान के सन्तान से भिन्न संतान के ज्ञानों की भी समानजातीयता है किन्तु उनके प्रति हेतुत्व नहीं है, अत: यहां भी व्यभिचार हुआ। तथा, एक सन्तानगत होने से उत्तरज्ञान के प्रति पूर्वज्ञान को हेतु मानें तो उसी संन्तान के अन्त्यक्षण के प्रति उस ज्ञान में एक सन्तानता है किन्तु अंत्यक्षण के प्रति हेतुता नहीं है, तो यहाँ भी व्यभिचार ही हुआ। निष्कर्ष-किसी भी रीति से, ज्ञान से ही ज्ञानोत्पत्ति का समर्थन नहीं हो सकता। [ ज्ञानधारा अविच्छिन्न होने की शंका का निरसन ] ___यदि ऐसा कहें कि-अन्त्यज्ञान में जो व्यभिचार दिखाया है वह अयुक्त है क्योंकि हमें अन्त्यज्ञान ही मान्य नहीं है, हम तो ज्ञानधारा को निरन्तर ही मानते हैं। जैसे देखिये-मरणकालीन शरीर से जो ज्ञान होता है वह भी अन्यज्ञान का हेतु होता है और जाग्रत अवस्था में जो अन्तिमज्ञान होता है वह भी सुषुप्तावस्था के आद्यज्ञान का हेतु होता है ।-नैयायिक इसके ऊपर कहते हैं कि यदि ऐसा मानेंगे तो, अर्थात् मरणशरीरज्ञान को मध्यकालीन शरीर में ज्ञान का हेतु मानेंगे और गर्भकालीनशरीर में ज्ञान का भी हेतु मानेंगे तो फिर चैत्रसन्तान का ज्ञान मैत्र के सन्तान में भी ज्ञानोत्पत्ति कर

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