________________ 582 सम्मतिप्रकरण -नयकाण्ड 1 अपि च, आत्मनः स्वदेहमात्रव्यापकत्वेन सुख-दुखादिपर्याक्रान्तस्य स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धत्वात तद्विभुत्वसाधकस्य हेतोरध्यक्षबाधितपक्षानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्ट त्वम् / अन्यस्य च 'अहम्' इत्यध्यक्षसिद्धस्य प्रमाणाऽविषयत्वेनाऽसत्वादाश्रयाऽसिद्धो हेतुरिति / अनया दिशाऽन्येऽपि तद्विभुत्वसाधनायोपन्यस्यमाना हेतवो निराकर्तव्याः, प्रस्य निराकरणप्रकारस्य सर्वेषु तत्साधकहेतुषु समानत्वात् / तन्नात्मनः कुतश्चिद्विभुत्वसिद्धिः / ___अथापि स्यात् यथाऽस्माकं तद्विभुत्वसाधकं प्रमाणं न संभवति तथा भवतामपि तदविभुत्व- . साधकप्रमाणाभाव इति नानुपमसुखस्थानोपगतिस्तेषां सिद्धेति तदवस्थं चोद्यम्, न हि परपक्षे दोषो. द्भावनमात्रतः स्वपक्षाः सिद्धिमुपगच्छन्ति अन्यत्र स्वपक्षसाधकत्वलक्षणपरप्रयुक्त हेतुविरुद्धतोद्भावनात् , न चासौ भवता प्रदर्शितेति / न सम्यगेतत् , तदभावाऽसिद्धेः / तथाहि देवदत्तात्मा 'देवदत्तशरीरमात्रव्यापकः, तत्रैव व्याप्त्योपलभ्यमानगुणत्वात् , यो यत्रैव व्याप्त्योपलभ्यमानगुणः स तन्मात्रध्यापकः, यथा देवदत्तस्य गृह एव व्याप्त्योपलभ्यमानभास्वरत्वादिगुणः प्रदीपः, देवदत्तशरीर एव व्याप्त्योपलभ्यमानगुणस्तदात्मा' इति / तदात्मनो हि ज्ञानादयो गुणास्ते च तद्देहे एव व्याप्त्योपलभ्यन्ते, न परदेहे, नाप्यन्तराले। से आकाश में साध्य-साधनशून्य की सिद्धि करेंगे' ऐसा तो बोल ही नहीं सकते क्योंकि स्पष्ट ही यहां अन्योन्य पराधीनता हो जाने से इतरेतराश्रय दोष लगेगा। तदुपरांत हेतु में निम्नोक्त रीति से संदिग्ध अनैकान्तिकता दोष भी है-देखिये, आत्मा में अणुपरिमाणानधिकरण व विशिष्ट नित्यद्रव्यत्व रहेगा और अविभुत्व भी रहेगा तो क्या बाध है, इस प्रकार आत्मा की ही विपक्षरूप में सम्भावना करेंगे तो उसमें हेतु तो रहेगा ही और विपक्षत्व की शंका का निवारक कोई बाधक प्रमाण ही नहीं है, फलतः विपक्ष से हेतु को व्यावृत्ति में संदेह हो जाने से विपक्षावृत्तित्व ही असिद्ध ही जाता है और हेतु संदिग्धव्यभिचारी हो जाता है। विपक्ष में हेतु का अदर्शन यह कोई बाधक प्रमाणरूप नहीं है / क्योंकि सभी को विपक्ष में हेतु का अदर्शन होने की बात तो असिद्ध है, और अपने को विपक्ष में हेतु का अदर्शन तो अनैकान्तिक भी हो सकता है यह पहले कहा ही है। [ देहमात्रव्यापक आत्मा स्वसंवेदनसिद्ध है ] तदुपरांत, सुखदुखादिविवर्तों से आक्रान्त स्वदेहमात्र में व्यापक आत्मा स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से ही सिद्ध है, इसलिये आत्मा में विभुत्व की सिद्धि के लिये प्रयुक्त हेतु, प्रत्यक्षबाधित पक्ष के बाद प्रयुक्त होने से कालात्ययापदिष्ट हो जायेगा / तथा अव्यापक से भिन्नप्रकार का (व्यापक) आत्मा 'अहम्' इस प्रकार के प्रत्यक्ष से सिद्ध हो यह बात प्रमाण की विषयभूत न होने से व्यापकात्मा असिद्ध है, अत: उसमें विभुत्वसाधक हेतु आश्रयासिद्धि दोष से दूषित हो जायेगा। विभुत्व की सिद्धि के लिये जितने भी हेतु कहे जाय उन सभी का उक्त दिशा से निराकरण हो सकता है, क्योंकि स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्ध देहमात्रव्यापक आत्मा और तत्प्रयुक्त बाध और आश्रयासिद्धि दोषों का उक्त प्रकार, आत्मविभूत्वसाधक सभी हेतुओं में समान है / निष्कर्ष, किसो भी प्रकार से आत्मा में विभुत्व की सिद्धि अशक्य है / [ अविभुत्वसाधक प्रमाण का अभाव नहीं ] यदि ऐसा कहें कि-"हमारे पास विभूत्व का साधक कोई प्रमाण नहीं है तो आपके पास अविभुत्व का साधक प्रमाण भी कहाँ है ? अविभुत्वसाधक प्रमाण के अभाव में जिन भगवान को