Book Title: Sammati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Abhaydevsuri
Publisher: Motisha Lalbaug Jain Trust

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Page 637
________________ 604 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ वदेत्-यथा सुखरागनिबन्धनायां प्रवृत्तौ रागस्य बन्धनहेतुत्वात् मोक्षाभावस्तथा दुखाभावार्थायामपि, तत्रापि दुःखे तत्साधने वा दोषदर्शनाद् द्विष्टस्तदभावाय प्रवर्तते / यथा च रागक्लेशो बन्धनहेतुस्तथा द्वेषोऽपीत्यविशेषः / यच्चोक्तम् 'दुखाभावे सुखशब्दप्रयोगात्, तदभाव एव सुखम्'तदयुक्तम् , युगपत् सुख-दुःखयोरनुभवात् यथा ग्रीष्मे सन्तापतप्तस्य क्वचिच्छीते हृदे निमग्नार्द्धकाय-तो फिर क्या यह बात सुख के लिये भी समान नहीं है ? जो दृष्ट सुख है वह तो उत्पत्तिविनाशधर्मक ही है, तो फिर सुख में प्रमाण से बाधित उत्पत्तिविनाश शून्यता की कल्पना भी कैसे की जाय ? कदाचित् ऐसा कहें कि-यदि हम दृष्ट सुख में ही नित्यत्व की कल्पना करे तब तो उक्त दोष का प्रसंग ठीक है, किन्तु हम तो दृष्ट सुख से सर्वथा विजातीय आत्मधर्मरूप नित्य सुख को मान लेते हैं तो उसमें दृष्टविरोध कैसे ?-तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि पहले ही हमने कह दिया है कि नित्य सुख में कुछ प्रमाण नहीं है / तथा नित्य सुख की सिद्धि में जो अनुमान आपने दिखाया है वह भी एकान्त से आपके इष्ट साध्य का साधक नहीं हो सकता क्योंकि प्रवृत्ति सीर्फ इष्ट प्राप्ति के लिये ही नहीं, अनिष्ट के प्रतिकार के लिये भी होती है। [आगम से नित्यसुख की सिद्धि अशक्य ] __यदि कहें कि-अनुमान से सिद्धि न होने पर भी मुक्ति दशा में नित्य सुख के साधक आगम का तो अभाव नहीं है, पहले कहा ही है-"ब्रह्म विज्ञानमय और आनन्दमय है" यह वेदवाक्य है। तो यह गलत है, क्योंकि इस आगम वाक्य का 'मुक्ति में नित्य सुख है' ऐसा अर्थ ही नहीं / कदाचित् आपका आग्रह हो कि उक्त आगम वाक्य का 'मुक्ति में नित्य सुख है' ऐसा ही अर्थ है, तो फिर सुख शब्द को आत्यन्तिक दुःखाभावरूप अर्थ में औपचारिक समझना होगा, नहीं कि नित्यसुख के अर्थ में मुख्य / यदि कहें कि-सुखशब्द का दुःखाभाव अर्थ कैसे माना जाय ? शब्द और अर्थ के सम्बन्ध का अवबोध लोकव्यवहार से ही होता है। सुख शब्द का दुखाभाव अर्थ के साथ सम्बन्ध लोक में प्रसिद्ध नहीं है तो फिर आगम में प्रयुक्त सुख शब्द से दुःखाभावरूप अर्थ का प्रतिपादन कैसे होगा?-तो यह कोई दोष जैसा नहीं है क्योंकि लोक में सीर्फ मुख्य अर्थ में ही शब्दों का प्रयोग नहीं होता किन्तु गौण अर्थ में भी होता है / जैसे देखिये कि लोक में दुखाभाव अर्थ में भी सुखशब्द का प्रयोग देखा जाता है / जब ज्वरादिरोगग्रस्त लोग ज्वरादि के पंजे में से छूटते हैं तब बोलते हैं कि 'अब हम सुखी हुए' / तदुपरांत यह तो सोचिये कि यदि इष्ट प्राप्ति के लिये मुमुक्षु की प्रवृत्ति को मानेंगे तो वह प्रवृत्ति रागमूलक हो होगी, तो रागमूलक प्रवृत्ति से मोक्ष कैसे प्राप्त होगा? राग तो क्लेश है और क्लेश तो बन्धहेतु है। [दुःखाभावार्थक प्रवृत्ति मानने में मोक्षाभाव की आपत्ति ] मुक्तिसुखवादी यहां पूर्वपक्ष करते हैं- . - "सुखरागमूलक प्रवृत्ति मानने में मुक्ति नहीं प्राप्त होगी क्योंकि राग बन्धन का कारण हैऐसा जो नैयायिकने कहा है उसके सामने यह भी कहा जा सकता है कि दु:खाभाव के लिये प्रवृत्ति मानने में भी मुक्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि दुःख या उसके साधन के दोषदर्शन से द्वेष जगने पर ही दुःखनाश के लिये प्रवृत्ति होगी, तो रागात्मक क्लेश जैसे कर्मबन्धकारक है वैसे द्वेष भी कर्मबन्धकारक ही है / यह भी जो कहा है कि सुखशब्द का प्रयोग दुःखाभाव अर्थ में किया गया होने से दुःखाभाव ही सुख है / यह ठीक नहीं है, क्योंकि सुख और दुःख का एक साथ अनुभव होता है ( दुःख

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