Book Title: Sammati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Abhaydevsuri
Publisher: Motisha Lalbaug Jain Trust

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Page 635
________________ 602 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 मार्थः, उपदेशत्वात् , तदन्योपदेशवत् , तदेतत् प्रतिपादितम्-"नोभयमनर्थकम्" [ इति, मोक्षसुखसंवेदनानभ्युपगमे प्रवृत्त्युपदेशयोन किंचित् फलं भवेत् / एतच्चाऽयुक्तम्-प्रवृत्त्युपदेशयोरन्यथासिद्धत्वात् / भवेत् साध्यसिद्धियथोक्ताद्धेतुद्वयात् यद्येकान्तेनैव प्रवृत्तेरुपदेशस्य च इष्टाधिगमार्थत्वं भवेत, तयोस्त्वन्यथापि दर्शनात नाभिमतसाध्यसाधकत्वम् / तथाहि-प्रातराणां चिकित्साशास्त्रा निष्ठायिनामनिष्टप्रतिषेधार्था प्रवत्तिदृश्यते उपदेशश्च, प्रतः कथमिष्टप्राप्त्यर्थता प्रवत्त्युपदेशयोः? ! किंच, इष्टाऽनिष्टयोः साहचर्यमवश्यम्भावि, अतो यदीष्टाधिगमार्था प्रवत्तिस्तदा बलात तस्यामधस्थायामनिष्टसंवेदनमापतति, न हीष्टमनिष्टाननषक्तं क्वचिदपि विद्यते / तस्मादनिष्टहानार्थायामपि प्रवृत्ताविष्टं हातव्यम् , तयोविवेकहानस्याऽशक्यत्वात् / किंच, दृष्टबाधश्न तुल्यः / तथाहि-यथा मुक्त्यवस्थायामनित्यं सुखमतिक्रम्य नित्यमुपेयते प्रमाणशून्यं तद्विरुद्धं च, तथा शरीरादिन्यपि नित्यसुखभोगसाधनानि वरं कल्पितानि, एवं मुक्तस्य नित्यसुखप्रतिपत्तिः साध्वी स्यात् / अथ जाता है-इस न्याय से नित्यसुख के संवेदन में विघ्नभूत शरीरादि का ध्वंस कर देने वाले को हिंसा (पाप) का फल (दुःख) नहीं भुगतना पड़ेगा। [ अनित्य सुखसंवेदन की मुक्ति में अनुपपत्ति ] __B अब यदि कहें कि-'नित्यसुख का संवेदन अनित्य है'-तो मुक्तावस्था में उसका उत्पादक कौन है यह कहना होगा / यदि योगजनितधर्म से सापेक्ष आत्मा-अन्त:करण का संयोग असमवायिकारण उत्पादक बनेगा-ऐसा कहा जाय तो यह संगत नहीं है क्योंकि योगजनित धर्म स्वयं ही अनित्य होने से नाशवंत है अतः उस अपेक्षाकारण के अभाव में वह कैसे उत्पन्न होगा? यदि कहें कि-योगजधर्म भले ही नाशवंत हो किन्तु उससे जो आद्य संवेदन (विज्ञान) उत्पन्न होगा उस विज्ञान से ही अपर अपर विज्ञान सन्तानक्रम से उत्पन्न होता रहेगा-तो यह ठीक नहीं क्योंकि इस बात में कोई प्रमाण ही नहीं है / तात्पर्य यह है कि देहसम्बन्ध के अभाव में आद्य विज्ञान ही उत्तर-विज्ञान की उत्पत्ति में आत्मा अन्तःकरणसंयोगरूप असमवायिकारण का ( योगजधर्म के बदले ) अपेक्षा कारण बन जाय ऐसा कहीं दृष्ट नहीं है और दृष्ट विपरीत कल्पना में सम्मति नहीं दी जा सकती। और कार्य की अकस्मात् (विना किसी हेतु से) उत्पत्ति हो जाय यह भो शक्य नहीं। [ मुमुक्षु की प्रवृत्ति इष्ट प्राप्ति के लिये या अनिष्टत्याग के लिये ] कदाचित् यह अभिप्राय हो कि-मोक्षावस्था में शरीरादि के न होने पर भी योगजनित धर्म के प्रभाव से सुख का संवेदन हो सकता है / देखिये, मुमुक्ष की प्रवृति इष्ट की प्राप्ति के लिये ही होती है, क्योंकि मुमुक्षु बुद्धिपूर्वक काम करता है / उदा० बुद्धिपूर्वक काम करने वाले किसान की प्रवृत्ति / तथा यह भी एक अनुमान है कि शास्त्रों का उपदेश इष्ट को प्राप्त कराने के लिये है क्योंकि यह उपदेश है जैसे माता-पिता का उपदेश / इससे यह कहना है कि मुमुक्षु की प्रवृत्ति और शास्त्र का उपदेश दोनों निरर्थक नहीं (किन्तु सार्थक होते) हैं। अब यदि मुक्तिदशा में सुख का संवेदन नहीं स्वीकारेंगे तो मुक्ति के लिये उपदेश और तदर्थ प्रवृत्ति दोनों व्यर्थ हो जायेंगे क्योंकि सुख के सिवा उनका और तो कोई संभवित फल ही नहीं। किन्तु यह अभिप्राय युक्त नहीं है क्योंकि उपदेश और प्रवृत्ति दोनों का सुख ही अन्तिम फल माना जाय और अन्य कुछ नहीं ऐसा कोई बन्धन नहीं है, अर्थात् अन्य (दुखाभावादि) फल से उप

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