Book Title: Sammati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Abhaydevsuri
Publisher: Motisha Lalbaug Jain Trust

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Page 633
________________ 600 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 किंच, नित्यस्य सुखस्य तस्यामवस्थायामभिव्यक्तिरवश्यं संवेदनम्-अन्यथाऽभिव्यक्त्यभावात्तत्र च विकल्पद्वयं-नित्यमनित्यं वा तद् भवेत् ? A नित्यत्वे तस्य मुक्ति-संसारावस्थयोरविशेषप्रसंगः, संसारावस्थस्यापि नित्यसुखसंवेदनस्य नित्यत्वात् मुक्तावस्थायामपि तत्संवेदनादेव मुक्तत्वम् , तच्च संसार्यवस्थायामप्यविशिष्टम् / अपि च, करणजन्येन सुखेन साहचर्य संसार्यवस्थायां तस्य गृह्यत ततश्च सुखद्वयोपलम्भः, सर्वदा भवेत्। अथ धर्माधर्मफलेन सुखादिना नित्यसखसंवेदनस्य संसारावस्थायां प्रतिबद्धत्वान्नानुभवः, शरीरादिना वा प्रतिबन्धात् तन्नानुभूयते तेन न द्वयोरवस्थयोरविशेषः / नाऽपि युगपत सुखद्वयोपलम्भः / अयुक्तमेतत्-शरीरादे गार्थत्वान्न तदेव नित्यसुखानुभवप्रतिबन्धकारणम् , न हि यद् यदर्थं तत् तस्यैव प्रतिबन्धकं दृष्टम् / न च वषयिकसखानुभवेन नित्यसखानुभवप्रतिबन्धः सम्भवति / तथाहि-न तावत सुखस्य नापि तदनुभवस्य प्रतिबन्धोऽनुत्पत्तिलक्षणो विनाशलक्षणो वा युक्तः, द्वयोरपि. नित्यत्वाभ्युपगमात् / नापि संसारावस्थायां बाह्यविषयव्यासंगाद् विद्यमानस्याप्यनुभवस्याऽसंवेदनम् तदभावात्तु मोक्षावस्थायां संवेदनमित्यप्यस्ति विशेषः, नित्यसुखे ह्यनुभवस्यापि नित्यत्वाद् व्यासंगानुपपत्तेः। भान नहीं होता उसी तरह सर्वेश्वर्य, प्रबुद्धत्व और सत्यसंकल्पता आदि भी ब्रह्म के स्वभावभूत ही है किन्तु अविद्या के प्रभाव से उन का अनुभव नहीं होता है / अनादिकालीन अविद्या का ध्वंस होने पर ब्रह्म जब स्वस्वरूप में अवस्थित हो जाता है तब सर्वैश्वर्य प्रबुद्धत्व-सत्यसंकल्पता का जैसा अनुभव होता है वैसे परमानन्दस्वभाव का भी अनुभव होता है / [मुक्तिसुखवादिवेदान्तीमत का निरसन ] नैयायिक कहते हैं कि मुक्ति सुखस्वभावमय होने की बात गलत है चूंकि उसमें कोई प्रमाण ही नहीं है / जैसे देखिये-मुक्ति में सुख होने का मत प्रमाणशून्य होने से बुद्धिमानों के लिये स्वीकार पात्र नहीं है, प्रमाण के विना भी यदि कुछ भी मान लेंगे तो गर्दभसींग को भी मानने का अतिप्रसंग होगा। यदि मुक्ति के सुख में कोई प्रमाण है तो वह प्रत्यक्ष है, अनुमान है या आगमप्रमाण है यह कहना होगा / इनमें से प्रत्यक्षप्रमाण तो मुक्ति में सुख का सद्भाव सिद्ध नहीं कर सकता है / कारण, हम लोगों का इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ऐसे अतीन्द्रिय पदार्थ के ग्रहण में सक्रिय ही नहीं है / योगी का प्रत्यक्ष यद्यपि अतीन्द्रियार्थस्पर्शी होने पर भी वह 'मुक्ति में सुख का ग्राहक है या सुखाभाव का' इस विषय में अब भी विवाद जारी है। __ तदुपरांत, मुक्तावस्था में नित्य सुख की अभिव्यक्ति होने का जो कहा गया है उसमें अभिव्यक्ति का यही अर्थ करना होगा कि सुख का अवश्यमेव संवेदन = अनुभव करना, संवेदन से अन्य अथ को 'अभिव्यक्ति' ही नहीं कहा जा सकता। अब यहाँ दो विकल्प हैं-A नित्यसुख का संवेदन नित्य है या B अनित्य ? यदि वह नित्य होगा तो संसारावस्था में और मुक्ति दशा में कुछ भी फर्फ नहीं रहेगा। कारण, नित्यसुख का संवेदन भी नित्य होने से संसारावस्था में भी रहेगा, मुक्त दशा में भी मुक्तत्व तो नित्यसुखसंवेदनमय ही है और वह संसारावस्था में भी नित्य होने से ज्यों का त्यों है। तथा, संसारावस्था में हर हमेश दो प्रकार के सुख का एक साथ अनुभव प्रसक्त होगा नित्य सुख का संवेदन तो नित्य होने से है ही और दूसरा इन्द्रियजन्य सुख भी नित्यसुख के सहन्नारी रूप में अनुभव में आयेगा / जब कि दो सुखों का एक साथ उपलम्भ तो अनुभवविरुद्ध है /

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