Book Title: Sammati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Abhaydevsuri
Publisher: Motisha Lalbaug Jain Trust

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Page 620
________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्ष! 587 कार्योत्पत्तौ तस्य निर्हेतुकत्वप्रसक्तिः' इति अत्र विपर्ययबाधकं प्रमाणं व्याप्तिनिश्चायकं प्रदर्शितम् / अपूर्वप्राणिप्रादुर्भावे च सर्वोऽप्ययं व्यवहारः प्रतिप्राणिप्रसिद्धः उत्सोदेत् , तज्जन्मनि सुखसाधनदर्शनादेरभावात् ; न हि मातुरुदर एव स्तनादेः सुखसाधनत्वेन दर्शनं यतः प्रत्यग्रजातस्य तत्र स्मरणादिव्यवहारः सम्भवेदिति पूर्वशरीरसम्बन्धोऽप्यात्मनः सिद्धः।। न च मध्यावस्थायां सुखसाधनदर्शनादिक्रमेणोपजायमानोऽपि प्रवृत्त्यन्तो व्यवहारो जन्मादावन्यथा कल्पयितु शक्यो विजातीयादपि गोमयादेः कारणाच्छालुकादेः कार्योत्पत्तिदर्शनादिति वक्तु शक्यम् , जलपाननिमित्ततृविच्छेदादावप्यनलनिमित्तत्वसम्भावनया तदथिनः पावकादौ प्रवृत्तिप्रसंगात सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्ते: / __अथ 'देहिनो देहाद देहान्तरानुप्रवेशस्तदभिलाषपूर्वकः, गृहाद् गृहान्तरानुप्रवेशवत्' इत्यतोऽन्यथासिद्धो हेतुरिति न द्रव्यविशेषं साधयति / तदुवतं सौगतै:-[ "दुखे विपर्यासमतिस्तृष्णा वाऽवन्ध्यकारणम् / जन्मिनो यस्य ते न स्तो न स जन्माधिगच्छति" // इति / [प्राग्भवीयशरीरसम्बन्ध की आत्मा में सिद्धि ] - यदि यह कहा जाय कि-'गर्भ में प्रवेश की बात ही असिद्ध है क्योंकि पहले के शरीर को छोडकर दूसरे देह में जाने वाला कोई तत्त्व ही नहीं है'-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि अनुमान से उस तत्त्व की सिद्धि की जा सकती है। जैसे देखिये-'अभिनव जात बालक की स्तनपान में प्रवृत्ति अभिलाष पूर्वक ही होती है क्योंकि वह इष्ट प्रवृत्तिरूप है, उदा० जन्म के बाद मध्यकाल में होने वाली स्तनपान की प्रवृत्ति / ' इस अनुमान से अभिलाष की सिद्धि होने पर इष्टसाधनता के स्मरण को हेतू करके उस बालक के आत्मा की पूर्वकालसम्बन्धिता भी सिद्ध की जा सकती है। फलतः आत्मा के पूर्वदेह में से वर्तमान देह में प्रवेश की बात सिद्ध होती है / जिस अनुमान से आत्मा का परलोक से आगमन सिद्ध होता है उस अनुमान का पहले नास्तिकमतनिराकरण अवसर पर प्रतिपादन हो चुका है। अर्थात् पहले यह सिद्ध किया जा चुका है कि तृप्ति सुख के साधनभूत जलादि का दर्शन उसके बाद इष्टसाधनता का स्मरण, उसके बाद उस स्मरण की सहायता से दृश्यमान जलादि में इष्टसाधनरूप से प्रत्यभिज्ञाज्ञान का उद्भव और उसके बाद उस जल को पीने का अभिलाष-यह पूरी व्यवहार प्रक्रिया एककर्तृक ही होती है, अतः एक कर्ता के रूप में आत्मा की सिद्धि होने से हमारे पूर्वोक्त कर्मसाधक अन्तिम अनुमान प्रयोग में व्याप्ति की असिद्धि को अवकाश ही नहीं। इस प्रकार के अनुमान में स्तनादि में प्रवृत्ति के द्वारा सिद्ध होता हुआ अभिलाष अपने पूर्वगामी प्रत्यभिज्ञारूप संकलनाज्ञान की सिद्धि करेगा, उससे तत्पूर्वगामी स्मरण की सिद्धि होगी, उससे पूर्वकाल में सुखादि के पदार्थ के दर्शन की सिद्धि होगी, अर्थात् यह सिद्ध होगा की उस बालक देहवर्ती आत्मा ने पहले भी ऐसा कहीं देखा है / यहाँ सर्वत्र यदि विपर्यय की शंका की जाय कि-अभिलाष के विना ही प्रवृत्ति को, अथवा प्रत्यभिज्ञा के विना ही अभिलाष को....इत्यादि माना जाय तो क्या बाध ? तो इस शंका का बाधक प्रमाण यही तर्क है कि अभिलाष और प्रवृत्ति इत्यादि में सर्वत्र कारण कार्यभाव प्रसिद्ध है अतः कारण के विना यदि कार्य का उद्भव मानेंगे तो कार्य में निहेतृकत्व प्रसक्त होगा। यह तर्क पहले दिखाया जा चुका है / यदि अभिनवजात प्राणी को आप अपूर्व यानी सर्वथा नया ही उत्पन्न मानेंगे तो हर कोई जीव को अनुभव सिद्ध उक्त व्यवहार-इष्ट साधन वस्तु के दर्शन से स्मरण के द्वारा प्रत्य

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