Book Title: Sammati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Abhaydevsuri
Publisher: Motisha Lalbaug Jain Trust

Previous | Next

Page 627
________________ 534 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ यवों के विषयदर्शनादि से हम कार्यभूत नवजात बालात्मा में प्रवृत्ति होने का कारणकार्यभाव मानेगे, तो इस तरह सर्वत्र प्रवृत्ति मानने की आपत्ति आयेगी क्योंकि आपका ही यह वचन है कि 'कारण के साथ जिसका संयोग होता है उसका कार्य के साथ संयोग हो ही जाता है। अतः किसी में भी विषयानुभव का अभाव नहीं रहेगा। तदुपरांत, दर्शनादि को आत्मा से यदि एकान्त भिन्न मानेंगे तो आत्मा के साथ उसका कोई सम्बन्ध न हो सकने से दर्शन-स्मरणादि प्रक्रिया का ही उच्छेद प्रसक्त होगा, क्योंकि समवायसम्बन्ध का तो निराकरण हो चुका है। [क्रियादि क्रम से द्रव्यनाश की प्रक्रिया का निरसन ] यदि नवजात शिशु में दर्शनादि गुणों की उत्पत्ति कारणगतगुणों की परम्पग से ( अर्थात् (कारणगत गुणों से कार्यगत गुणों की उत्पत्ति, इस प्रकार) मानेंगे, और यह उत्पत्ति भी यदि सर्वथा. पूर्वकाल में अविद्यमान ही गुणों की मानेंगे तो-इससे भी पूर्वोक्त दोष का परिहार नहीं होता, क्योंकि इस प्रकार से भी स्मरणादि की उपपत्ति नहीं की जा सकती। किसी भी वस्तु का एकान्त विनाश और सर्वथा पूर्व में असत् की उत्तरकाल में उत्पत्ति मानने पर स्मरणादि अभाव का दोष प्रसक्त होता है इसी लिये वैशेषिक विद्वानों की जो यह प्रक्रिया है कि-प्रथम अवयवी द्रव्य के अवयवों में क्रिया की उत्पत्ति, तदनन्तर उन अवयवों में विभागगुण का उद्भव, उसके बाद अवयवीद्रव्यजनक संयोग का विनाश और उससे द्रव्य का विनाश होता है-इस प्रक्रिया का अभिप्राय भी निरस्त हो जाता है। क्योंकि अवयवजन्य आत्म पक्ष में, पूर्वभव के अन्त में तो अवयवी आत्मा का सर्वथा नाश हो जायेगा फिर इस जन्म के प्रारम्भ में बालक आत्मा को स्मरणादि कैसे होगा ? नहीं हो सकेगा। तथा, वैशेषिकों का दिखाया हुआ क्रम-कटक (अलंकारविशेष) द्रव्य से केयूर की उत्पत्ति में लक्षित भी नहीं होता, अर्थात् कटकद्रव्य के कुछ अवयवों में क्रिया का उद्भव, उससे उन में विभागगुण की उत्पत्ति उससे आरम्भक संयोग का ध्वंस, उससे कटकद्रव्य का विनाश और सीर्फ अवयवों की ही सत्ता उसके बाद फिर से उनमें क्रिया-संयोगादि क्रम से केयूर की उत्पत्ति, ऐसा क्रम किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है / सीर्फ सुवर्णकार के प्रयत्न से कटकद्रव्य से ही केयूर का उद्भव दिखाई देता है, अतः विपरीत कल्पना करने में प्रत्यक्ष का विरोध मोल लेना होगा / तथा पहले विभाग गुण का उद्भव और उससे संयोगनाश-इन दोनों में भी कोई अन्तर नहीं है सीर्फ शब्दभेद ही है, जैसे की चैतन्य और बुद्धि शब्द में शब्दभेद के अलावा कुछ अन्तर नहीं है। तथा आत्मा को सांख्यमत की तरह एकान्त अक्षणिक मानने में सुखसाधना और दर्शन-स्मरणादि का सम्भव भी नहीं रहता है-यह बात कई पहले कह दी गयी है और आगे भी कही जायेगी इस लिये अभी उसको जाने दो। प्रस्तुत बात यह है कि आत्मा के देहपरिणाम की सिद्धि के लिये उपन्यस्त हेतु विपक्ष में न रहने से अनैकान्तिक दोष निरवकाश है / जब अनैकान्तिक दोष का संभव नहीं तो विरोध दोष का तो संभव सुतरां निषिद्ध हो जाता है क्योंकि अनैकान्तिक दोष विरोध का व्यापकीभूत है / इस प्रकार सर्वदोषविनिमुक्त हेतु से विवादाध्यासित आत्मा केश और नखादि को छोडकर सारे देहमात्र में ही व्यापक परिमाण वाला है-यह सिद्ध होता है / निष्कर्ष, मूल ग्रन्थकार ने जो 'जिनों का विशेषण कहा है 'अनुपमसुखवाले स्थान में पहुँचे हुए' यह देह व्यापक आत्म पक्ष में अत्यन्त संगत ही कहा है इसमें कोई संदेह नहीं है। [ आत्मविभुत्वनिराकरणवाद समाप्त ]

Loading...

Page Navigation
1 ... 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696