________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 505 मेव तदधिष्ठितत्वम् तेषां [इति] सर्वकालभाविकार्ये तदैव प्रवृत्तिरिति एकक्षण एवोत्तरकालभाविकार्योत्पत्तिप्रसंगः, अपरक्षणेऽपि तथाभूततज्ज्ञानसद्भावे पुनरप्यनन्तरकालकार्योत्पत्तिः सदैव, इति योऽयं क्रमेणांकुरादिकार्यसद्भावः स विशीर्यत / कतिपयाऽचेतनविषयत्वे च तज्ज्ञानादेः तदविषयाणां स्वकार्ये प्रवृत्तिर्न स्यात् इति तत्कार्यशून्यः सकलः संसारः प्रसक्तः, न हि तज्ज्ञानादिविषयत्वव्यतिरेकेणा परं तेषां तदधिष्ठित वं परेणाऽभ्युपगम्यते / अथ नित्यं तज्ज्ञानादि, नन्वेवं 'क्षणिकं ज्ञानम् , अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणत्वात् शब्दवत्' इत्यत्र प्रयोगे महेशज्ञानेन हेतोयभिचारः। अथ तज्ज्ञानादिव्यतिरेके सति' इति विशेषणानायं दोषः / न विपक्षविरुद्ध विशेषणं हेतोस्ततो व्यावर्तकं भवति, अन्यथा तव्यावर्तकत्वायोगात् / न चाऽक्षणिकत्वेन तद्व्यतिरिक्तत्वं विरुद्धं, द्विविधस्यापि विरोधस्यानयोरसिद्धः। न च विपक्षाऽविरद्धविशेषणोपादानमात्रेण हेतोय॑भिचारपरिहारः, अन्यथा न कश्चिद् हेतुर्व्यभिचारी स्यात्, सर्वत्र व्यभिचारविषये 'एतद्व्यतिरिक्तत्वे सति' इति विशेषणस्योपादातु शक्यत्वात् / न च नैयायिकमतेनाऽक्षणिक ज्ञानं सम्भवति, 'अर्थवत् प्रमाणम्' [ वात्स्या० (महाभूतादि) चेतनाधिष्ठित होकर ही प्रवृत्ति करते हैं क्योंकि वे अचेतन हैं'-इस प्रयोग में अचेतन ऐसा जो धमि का विशेषण किया गया है, तथा 'अचेतनत्वादि' हेतु का प्रयोग किया गया है ये दोनों अव्यर्थ नहीं रहेंगे, अर्थात् व्यर्थ हो जायेंगे, क्योंकि अब तो आप अचेतन की तरह चेतन को भी चेतनाधिष्ठित हो कर ही प्रवृत्त होने का मानते हैं, अत: 'अचेतन' पद में नत्र पद से कोई व्यवच्छेद्य : तो रहा नहीं / विशेषण तो तभी सार्थक होता है जब उसका कोई व्यवच्छेद्य हो / यह बात भी विचारणीय ही है कि अपने हेतुओं के संनिधान से उत्पन्न होने वाले अचेतन पदार्थों में चेतन अधिष्ठाता के विना देशनियम, कालनियम और आकारनियम की उपपत्ति न हो सके ऐसा है ही नहीं, अपने हेतुओं के बल से ही वह नियम होने वाला है। यदि उन हेतुओं से वह नियम नहीं होगा तो अधिष्ठाता के ज्ञान से भी वह नियम कैसे होगा यह प्रश्न ही है। [सकल कार्यों की एक साथ पुनः पुनः उत्पत्ति का प्रसंग] तथा ज्ञान से अधिष्ठितत्व का अर्थ तो यही है कि ज्ञान की विषयता से अर्थात् ज्ञान निरूपित ज्ञेयता से आक्रान्त होना / अब यदि आप अचेतनों की प्रवृत्ति के लिए ईश्वरज्ञान को क्षणिक एवं सभी अचेतन वस्तु में अधिष्टि त मानेंगे तो उन अचेतनों की, भावि सकल कार्यों की उत्पत्ति के लिये उस क्षण में ही प्रवृत्ति हो जायेगी जिस क्षण में वे ईश्वरज्ञान से अधिष्ठित हैं, अर्थात् एक ही क्षण में उत्तरोत्तरकाल भावि सकल कार्यों की उत्पत्ति का अतिप्रसंग होगा। तथा, दूसरे क्षण में भी यदि उन अचेतनों को क्षणिक ईश्वरज्ञान से अधिष्टित होने का मानेंगे तो पुन: उत्तरक्षण में भावि सकल कार्यों की ( जो पूर्व क्षण में एकबार तो उत्पन्न हो चुके हैं उनकी फिर से ) उत्पत्ति होगी, अर्थात् प्रत्येक क्षण में सकल कार्यों की बार बार उत्पत्ति होती रहेगी / फलतः, अंकूरादि की क्रमिक उत्पत्ति होने के सत्य का विलोप होगा / यदि ईश्वरज्ञान का विषय सर्व अचेतन नहीं किन्तु कुछ ही अचे. तन पदार्थ मानेंगे तो, ईश्वरज्ञान के विषय जो नहीं होंगे उन अचेतन पदार्थों की अपने कार्यों में प्रवृत्ति हो न होने से सारा संसार उन कार्यों से विकल हो जायेगा। ईश्वरज्ञानविषयता को छोड कर किसी अन्य प्रकार के अधिष्ठितत्व को तो नैयायिक भी नहीं मानता है। यदि-ईश्वरज्ञान को नित्य मानेंगेतो ज्ञान में शब्द के दृष्टान्त से क्षणिकत्व को सिद्ध करने के लिये प्रयुक्त हेतु (अपने लोगों के ) प्रत्यक्ष