________________ '522 - सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड अथ यद् यदा यत्र कर्मादिकं सहकारिकारणमासादयति तेन सह संभूय तत् तदा तत्र सुखादिक कार्य जनयति, एककार्यकारित्वमेव सहकारित्वमिति न कार्यत्वलक्षणस्तस्य दोषः / ननु कर्मादि सहकारिसव्यपेक्षः कार्यजननस्वभावस्तस्य कर्मसहकारिसंनिधानाद्यदि प्रागप्यस्ति तदा-सहकारिसंनिधानेऽपि स्वरूपेणैवाऽसौ कार्य निर्वर्तयति पररूपेण जनकत्वे सर्वस्य स्वरूपेणाऽजनकत्वात कार्यानुत्पादप्रसंगः, तस्य चाविकलस्य तज्जननस्वभावस्य भावादुत्तरकालभाविसमस्तकार्योत्पत्तिस्तदैव स्यात् / तथाहि-यद् यदा यज्जननसमर्थ तत् तदा तद् जनयत्येव यथाऽन्त्यावस्थाप्राप्तं बीजमंकुरम् . प्रजनने वा तदा तस्य तद् जननस्वभावमेव न स्यात् , तज्जननस्वभावश्च कर्मादिसामग्र्यसंनिधानेऽप्येकस्वभावतयाऽभ्युपगम्यमानो महेश इति स्वभावहेतुः। __ अथ कर्मादिसामग्र्यभावे तत्स्वभावोऽप्यसौ विवक्षितकार्य न जनयति, न तहि तज्जनकस्वभावः-यो हि यदा यन्न जनयति स तज्जनकस्वभावो न भवति, यथा शालिबीजं यवांकुर स्य, अतज्जनकस्यापि तत्स्वभावत्वेऽतिप्रसंगः, न जनयति च कर्मादिसामग्र्यभावे विवक्षितं कार्यमीश इति व्यापकानुपलब्धिः / अथ कर्मादिसामग्र्यभावे स स्वभावस्तदपेक्षकार्यजनकत्वलक्षणो नास्ति तहि स्वभावउसका फलोपभोग करवाता है जिससे कि उस कर्म का नाश हो जाय, फिर विशिष्टस्थान प्राप्ति द्वारा जीवों का अभ्युदय करता है-जैसे कि कोई व्यक्ति पहले मिष्ट लड्डु को अशुचि में डालता है फिर उसको बाहर निकाल कर शुद्ध करता है फिर उसको छोड देता है, ऐसे व्यक्ति की बुद्धि और ईश्वर की बुद्धि में क्या असमानता हुयी ? तथा, यदि वह प्राणिओं के कर्म को परवश बन कर प्राणिओं के दुख को उत्पन्न करता है अथवा दुःखजनक कर्म क्ष यहेतु प्रायश्चितसंहिता की रचना करता है तो ऐसे ईश्वर में तथाविध कर्म की कार्यता भी प्रसक्त होगी। क्योंकि कर्मों के ईश्वर के ऊपर कुछ न कुछ उपकार के विना ईश्वर में कर्म की अपेक्षा नहीं घट सकती। तथा, उपकार के द्वारा कार्यता इस रीति से होगी यह कर्मकृत उपकार यदि ईश्वर से भिन्न ही होगा तो ईश्वर के साथ उसका कोई सम्बन्ध ही नहीं घटेगा, इसलिये यदि उपकार को अभिन्न मानेंगे तो तदभिन्न ईश्वर भी कर्मकृत हो जाने से वह कर्म का कार्य क्यों नहीं होगा? [सहकारी संनिधान से सुखादिक त्व के ऊपर विकल्प ] . यदि यह कहा जाय कि-जब जहाँ जो जो कर्मादि सहकारी कारण उपस्थित हो जाते हैं उनके साथ मिलकर ईश्वर वहाँ उस वक्त सुखादि कार्य को करता है। एक दूसरे से मिलकर किसी एक कार्य को करना यही सहकारित्व है, आपने जो उपकाररूप कार्यत्व यह सहकारित्व का अर्थ किया है वैसा नहीं हैं / अतः ईश्वर में कोई कार्यत्वापत्तिरूप दोष नहीं है ।-तो इसके ऊपर प्रश्न है कि इस प्रकार का कर्मादिसहकारिसापेक्ष जो ईश्वर में कार्योत्पादनस्वभाव है वह कर्मादिमहकारि की उपस्थिति के पूर्व भी था या नहीं ? यदि विद्यमान था, तब सहकारि के संनिधान में भी ईश्वर अपरावत्त स्वस्वभाव से ही कार्य का जनक सिद्ध हुआ, क्योंकि यदि परस्वरूप से किसी को कार्यजनक मानगे तो सभी में स्वस्वरूप से कार्य की अजनकता का प्रसंग होने से कार्य की अनुत्पत्ति का प्रसंग आयेगा। ईश्वर में तो स्वस्वरूप से कार्यजननस्वभाव सहकारी-उपस्थिति के पहले भी जैसा था वैसा अक्षण्ण ही है अतः उत्तरकाल में होने वाले सभी कार्यों की एक साथ उसी वक्त उत्पत्ति हो जायेगी। जैसे देखिये-जो जब जिसके उत्पादन में समर्थ होता है वह उस वक्त उसे उत्पन्न करता ही है, जैसे अन्त्यावस्था को प्राप्त अर्थात् चरमक्षणवर्ती बीज, अंकुर के उत्पादन में समर्थ होता है तो वह उसे उत्पन्न