________________ 460 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [ संयोगपदार्थपरीक्षणम् ] कथं संयोगाऽसिद्धत्वम् येनोक्तदोषदुष्टः प्रकृतो हेतुः स्यात् ? उच्यते, तद्ग्राहकप्रमाणाभावाद बाधकप्रमाणोपपत्तेश्च / तथाहि-"संख्या-परिमाणानि पृथक्त्वम् संयोग-विभागौ परत्वाऽपरत्वे कर्म च रूपि (द्रव्य) समवायात् चाक्षुषाणि"[ वैशे०८०४/१/११ ] इति-वचनात् दृश्यवस्तुसमवेतस्य संयोगस्य परेण प्रत्यक्षग्राह्यत्वमभ्युपगतम् / न च निरन्तरोत्पन्नवस्तुद्वयप्रतिभासकालेऽध्यक्षप्रतिपत्ती तद्व्यतिरेकेणापरः संयोगो बहिर्ग्राह्यरूपतां बिभ्राणः प्रतिभाति / नापि कल्पनाबुद्धौ वस्तुद्वयं यथोक्तं विहाय शब्दोल्लेखं चान्तरम् अपर वर्णाकृत्यक्षराकाररहितं संयोगस्वरूपमुद्भाति / तदेवमुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य संयोगस्यानुपलब्धेरभावः, शशविषाणवत् / तेन यदाह उद्द्योतकर: यदि संयोगो नार्थान्तरं भवेत् तदा क्षेत्र-बीजोदकादयो निविशिष्टत्वात् सर्वदेवांकुरादिकार्य कुर्युः, न चैवम् , तस्मात् सर्वदा कार्यानारम्भाव क्षेत्रादीन्यंकुरोत्पत्तौ कारणान्तरसापेक्षाणि, यथा मत्पिडादिसामग्री घटादिकरणे कुलालादिसापेक्षा, योऽसौ क्षेत्रादिभिरपेक्ष्यः स संयोग इति सिद्धम् / किं च, असौ संयोगो द्रव्ययोविशेषणभावेन प्रतीयमानत्वात् ततोऽर्थान्तरत्वेन प्रत्यक्षसिद्ध एव / बन जायेगा / तथा पृथ्वीआदि में तद्वत्तारूप जो संयोगजन्यत्व विशेष्यअंश है वह भी असिद्ध है इसलिये 'रचनावत्त्व' हेतु भी असिद्धविशेष्यवाला हो जाता है / [ नैयायिकाभिमत संयोग पदार्थं की आलोचना ] नैयायिकः-संयोग कैसे असिद्ध है जिससे कि रचनावत्त्व हेतु उक्त असिद्धिदोष से दूषित बने ? उत्तरपक्षी:-संयोग के अस्तित्व का कोई साधकप्रमाण नहीं है, दूसरी ओर बाधकप्रमाण सिर उठाता है। जैसे देखिये "संयोग, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्वापरत्व और कर्म (ये सब) रूपी द्रव्य में समवेत होने से चक्षग्राह्य हैं ऐसे वैशेषिकदर्शन के वचनानुसार आपने दृश्य (यानी) रूपिवस्तू में समवेत संयोग को ही प्रत्यक्षग्राह्य माना है। किन्तु जब बीच में विना किसी अन्तर से उत्पन्न दो द्रव्य का प्रतिभास होता है उस वक्त प्रत्यक्षप्रतीति में दो द्रव्य से भिन्न और बाह्यपदार्थ के रूप में ग्राह्यता को धारण करने वाला कोई नया संयोग दिखता नहीं है / कल्पना बुद्धि में भी दो पदार्थ और आन्तरिक शब्दोल्लेख के अलावा और कोई वर्णाकृति-अक्षराकारशून्य संयोग का स्वरूप भासित नहीं होता है। इस तरह उपलब्धिलक्षणप्राप्त (यानी दृश्यस्वभाव) होने पर भी संयोग की उपलब्धि नहीं होती है अतः शशसींग के जैसे उस का भी अभाव सिद्ध होता है। [ उद्योतकरकथित संयोगसाधक युक्तियाँ ] उद्योतकरने जो यह कहा है कि संयोग यदि स्वतंत्रपदार्थ न होता तब क्षेत्र, बीज और जलादि कारण जो मिलकर ही कार्य करते हैं वे एकत्रित हुये विना ही हमेशा अंकूरादि को करते रहेंगे। किंतु ऐसा देखा नहीं जाता, अत: हमेशा कार्योत्पादन न करने से क्षेत्रादि कारण, अंकुर की उत्पत्ति में और भी एक कारण की अपेक्षा