________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 353 संगतम् , यतो दर्शनावस्थाप्रतिभासेन तत्सम्बद्धमेवावस्थातृरूपं गृहीतं न स्पर्शनज्ञानसम्बन्धि, तत्र तदवस्थाया अनुत्पन्नत्वेनाऽप्रतिभासनात , तदप्रतिभासने च तदव्यापित्वेनावस्थातुरप्यप्रतिभासनात् / नापि स्पर्शनप्रतिभासेन दर्शनावस्थाव्याप्तिरवस्थातुरवगम्यते, स्पर्शनज्ञाने दर्शनस्य विनष्टत्वेनाऽप्रतिभासनात् , प्रतिभासने चाऽनाद्यवस्थापरम्पराप्रतिभासप्रसंगः / न च प्रागवस्थाऽप्रतिभासने तदवस्थाव्याप्तिरवस्थातुरवगन्तुं शक्या / यच्च येन रूपेण प्रतिभाति तत्तेनैव सदित्यभ्युपगन्तव्यम् , यथा नाल नीलरूपतया प्रतिभासमानं तेनैव रूपेणाभ्यपगम्यते / दर्शन-स्पर्शनजानाभ्यां च स्वसंबन्धित्वेमेवावस्थ गुह्यते इति तद्रूप एवासावभ्युपगन्तव्य इति कुतोऽवस्थातृसिद्धिः ?" [ दर्शन-स्पर्शानावभास भेद से प्रत्यभिज्ञाएकत्व पर आक्षेप ] इस संदर्भ में बौद्धों की ओर से ऐसा प्रतिपक्ष नहीं किया जा सकता [ अब यहाँ पूरे परिच्छेद में बौद्ध का प्रतिपक्ष क्या है यही दिखाते हैं ] कि-- ___ 'मैंने देखा था वही मैं अब छू रहा हूँ' इस प्रत्यभिज्ञा में आत्मा का दर्शनकर्तृत्व यह स्पर्शकर्तृत्व से अनुप्रविष्ट हो कर भास रहा है या विना अनुप्रवेश ही भास रहा है ? यदि अनुप्रविष्ट हो कर भास रहा हो तब तो दृष्टारूप में स्पर्शकर्तृत्वरूप के अनुप्रवेश से उसके दृष्टापन का विलय हो कर वह स्पर्शक रूप ही हो जायेगा, उसकी दृष्टरूपता नहीं रहेगी तो 'दृष्टा मैं स्पर्श करता हूँ' इस प्रकार की उभयरूपतावभासक प्रत्यभिज्ञा ही कैसे होगी जिस से दृष्टा और स्पर्शकर्ता के एकत्व की सिद्धि हो सके ? यदि कहें कि स्पर्शकर्तृत्वरूप के अनुप्रवेश विना ही दृष्टारूप भासित होता है, तो इस का अर्थ यही हुआ कि दर्शनावभास और स्पर्शावभास भिन्न हैं, तब प्रत्यभिज्ञा यह उभयस्वरूप एक ज्ञान नहीं किंतु दो भिन्न ज्ञान साबित हुए तो एक प्रत्यभिज्ञा कहाँ रही ? जब दोनों प्रतिभास ही भिन्न है तब भिज्ञा में एकरूपता नहीं हो सकती. अन्यथा भिन्न भिन्न घटावभास और पटावभास भी एकरूप हो जायेंगे। यदि कहें कि-यहाँ केवल प्रतिभास ही भिन्न भिन्न है किंतु दोनों का विषय दृष्टा और स्पर्श आत्मा तो अभिन्न- एक ही है-तो यहाँ प्रश्न है कि यह अभेद किस से सिद्ध है ? 'प्रतिभास के अभेद से' ऐसा तो कह नहीं सकते कि अभी तो भिन्न भिन्न प्रतिभास की स्थापना की गयी है / 'स्वतः अभेद है' ऐसा भी नहीं कह सकते कि स्वत: अभेद तो अब भी विवादास्पद है / यदि यह कहा जाय-'दर्शनावभास और स्पर्शावभास दोनों एक ही चिन्मय आत्मा की दो अवस्था है-जब ये दो अवस्थाएं है तो उसका अवस्थाता अभिन्न-एक आत्मा ही सिद्ध होगा अतः कोई भी दोष नहीं है'तो यह भी असंगत है क्योंकि दर्शनावस्था के प्रतिभास से केवल अपने से सम्बद्ध ही अवस्थातारूप यानी दृष्टा का ही ग्रहण हुआ है, स्पर्शनज्ञानसम्बन्धी अवस्थातारूप का यानी स्पर्शकर्ता का तो ग्रहण ही नहीं हुआ, क्योंकि दर्शनावस्था के समय स्पर्शनावस्था का उदय न होने से वहाँ स्पर्शनावभास तो है नहीं, जब स्पर्शनावस्था ही नहीं है तो 'दर्शनावस्था का अवस्थाता स्पर्शनावस्था में भी अनुगत यानी व्यापक है' यह भी भासित नहीं हो सकता। यदि कहें कि-'स्पर्शावभास से ही दर्शनावस्था में अनुगत-व्यापक अवस्थाता का बोध हो जायेगा'-तो यह भी अशक्य है क्योंकि स्पर्शनकाल में दर्शन तो विनष्ट हो गया है तब उसमें अनुगत अवस्थाता का प्रतिभास कैसे होगा ? यदि स्पर्शनकाल में विनष्ट दर्शन का भी अवभास माना जाय