________________ 362 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 स्यात् , तत्स्वभावजन्यत्वात् , तदुत्तरज्ञानक्षणवत / अथ b स्वभावान्तरेण तदोपादानाभिमतं ज्ञानं द्विस्वभावमासज्यते / यथा चोपादान-सहकारिस्वभावरूपदययोगस्तथा त्रैलोक्यान्तर्गतान्यकार्यान्तरा वमपि स्वभावः, ततश्चैकत्वं ज्ञानक्षणस्य यथोपादान सहकार्यऽजनकत्वानेकविरुद्धधर्माध्यासितस्याभ्युपगम्यते तथा हर्ष-विषादाद्यनेकविवर्तात्मनस्तत्सन्तानस्याप्यभ्युपगन्तव्यम् / अथोपादान-सहकार्यजनकत्वादयो धर्मास्तत्र कल्पनाशिल्पिकल्पिताः, एकत्वं तु तस्य स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धमिति न तैस्तदपनीयत इति मतिस्तात्मनोऽप्येकत्वं सन्तानशब्दाभिधेयतया प्रसिद्धस्य स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धस्य क्रमवद्धर्ष विषादादिकार्यदर्शनाऽनुमीयमानतदपेक्षजनकत्वाऽजनकत्वधर्मापनेयं न स्यात् / तन्न स्वगतसकलधर्माधायकत्वमपादानत्वं भवदभ्युपगमेन संगतम्। ___A नापि सन्ताननिवृत्त्या कार्योत्पादकत्वस्वभावं, तथाऽभ्युपगमे ज्ञानसन्ताननिवृत्तेः परलोकाभावप्रसंग:। भी उपादेयमात्मक विज्ञानमय ही हो जायेगा क्योंकि रूपादि उसी स्वभाव से ही उत्पन्न है जिस स्वभाव से उत्तरज्ञानक्षण उत्पन्न होता है, अतः समानस्वभाव से उत्पन्न उत्तरज्ञानक्षणवत् रूपादि भी समान यानी विज्ञानरूप ही होगा। b यदि अन्य स्वभाव से रूपादि की उत्पत्ति होती है, तो उपादानरूप से मान्य विज्ञानक्षण में स्वभावद्वय प्रसक्त होगा। तदुपरांत, जैसे एक ही क्षण उपादानस्वभाव और कारिस्वभाव ये दोनों से यक्त है. वैसे सकल भमंडल अन्तर्गत अन्य जो जन्य कार्य हैं उनकी अपेक्षा उसी क्षण में अजनकत्व स्वभाव भी मानना होगा, क्योंकि उन सभी कार्यों का वह एक क्षण अजनक भी है। [ इससे क्या सिद्ध हुआ ? उ० ] इससे यह फलित होगा कि जैसे एक ही ज्ञानक्षण उपादानस्वभाव, सहकारिस्वभाव और अजनकत्व आदि परस्परविरुद्ध धर्मों से अधिष्टित. होने पर भी उसका एकत्व अक्षुण्ण है वैसे ही हर्ष-खेद आदि अनेक विवर्तस्वरूप भिन्नकालीन परस्परविरुद्ध धर्मों से अधिष्ठित जो देवदत्तादि सन्तान है उसी का भी एकत्व मानना होगा। तात्पर्य, देवदत्तसंतान में एक अनुगत आत्मा सिद्ध हुआ। [ कल्पित धर्मों से एकत्व अखंडित रहने पर एकात्मसिद्धि ] पूर्वपक्षीः- एक ज्ञानक्षण में जो उपादान-सहकारी अजनकत्वादि धर्म हैं वे सब कल्पना शिल्पी स्तव नहीं है, उन कल्पित परस्परविरुद्ध धर्मों से उस क्षण का स्वसंवेदन प्रत्यक्षसिद्ध वास्तव एकत्व खंडित नहीं हो सकता। उत्तरपक्षी:-अगर ऐसी आपकी मान्यता है तब तो यह भी मान लेना चाहिये कि पूर्वापर क्षणों में आत्मा का जो वास्तविक एकत्व है वह भी, जनकत्व और अजनकत्वादि विरोधाभासी धर्मों के योग से खण्डित नहीं होगा,-क्रमिक हर्ष खेद आदि कार्यों के देखने से हर्षादि कार्यों की अपेक्षा जनकत्व का और शेष जन्य कार्यों की अपेक्षा अजनकत्व का तो एक आत्मा में केवल अनुमान ही किया जाता है, यानी वे कल्पित ही हैं। उपरोक्त चर्चा का सार यही है कि 'स्वगत सकल धर्मों का आधायकत्व' यह उपादान का लक्षण आपकी ही अन्य मान्यता के अनुसार असंगत सिद्ध होता है। A उपादान का जो प्रथम लक्षण किया गया था-'संतान की निवृत्ति होकर कार्य की उत्पत्ति करने का स्वभाव' वह लक्षण भी असंगत है क्योंकि इस पक्ष में ज्ञानसंतान की निवृत्ति हो कर अन्य - सकालपत, वामन - - - - ... .