________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 403 चेत् ? तदसत् , स्वार्थप्रतिपादक त्वेन विध्यत्वात / तथाहि-स्तुतेः स्वार्थप्रतिपादकत्वेन प्रवर्तकत्वम् , निन्दायास्तु निवर्तकत्वमिति / अन्यथा हि तदर्थाऽपरिज्ञाने विहित-प्रतिषिद्धेष्वविशेषेण प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा स्यात् / तथा विधिवाक्यस्यापि स्वार्थप्रतिपादनद्वारेणैव पुरुषप्ररकत्वं दृष्टम् एवं स्वरूपपरेष्वपि वाक्येषु स्यात् , वाक्यस्वरूपताया अविशेषात विशेषहेतोश्चाभावादिति / . तथा, स्वरूपार्थानामप्रामाण्ये "मेध्या आपः, दर्भाः पवित्रम् , अमेध्यमशुचि" इत्येवंस्वरूपाऽपरिज्ञाने विध्यंगतायामप्यविशेषेण प्रवृत्ति-निवृत्तिप्रसंगः / न चैतदस्ति, मेध्ये वेव प्रवर्तत अमेध्येषु च निवर्तत इत्युपलम्भात् / तदेवं स्वरूपार्थेभ्यो वाक्येभ्योऽर्थस्वरूपावबोधे सति, इष्टे प्रवृत्तिदर्शनादनिष्टे च निवृत्तेरिति ज्ञायते-स्वरूपार्थानां प्रमाजनकत्वेन प्रवृत्तौ निवृत्तौ वा विधिसहकारित्वमिति, अपरिज्ञानात्तु प्रवृत्तावतिप्रसंगः। अथ स्वरूपार्थानां प्रामाण्ये 'ग्रावाण: प्लवन्ते' इत्येवमादीनामपि यथार्थता स्यात् / न, मुख्ये बाधकोपपत्तेः / यत्र हि मुख्य बाधकं प्रमाणमस्ति तत्रोपचारकल्पना, तदभावे तु प्रामाण्यमेव / न चेश्वरयह ठीक नहीं है, क्योंकि उन वाक्यों में भी प्रमाणजनकत्व अर्थात् प्रमात्मकबोधजनकत्व विद्यमान है / जैसे देखिये-कोई भी प्रमाण (=प्रमा का करण) प्रमात्मक ज्ञान का जनक होने से ही प्रमाण होता है, प्रवृत्तिजनक होने से नहीं / और प्रमाजनकत्व तो स्वरूपप्रतिपादक वेदवाक्यों में भी अबाधित है ही / यदि कहें कि-स्वरूपप्रतिपादक वेदवाक्यों विधि के अंगभूत यानी विध्यर्थ साधन में उपयोगी होने से ही प्रमाण हैं, स्वरूपप्रतिपादक होने से नहीं तो यह कथन मिथ्या है क्योंकि कोई भी वाक्य विधि का अंगभूत तभी हो सकता है जब वह स्ववाच्यार्थ का सम्यक् प्रतिपादन करे / देखिये स्ववाच्यार्थ का प्रतिपादक होने से ही स्तुतिवाक्य प्रवृत्तिकारक बनता है और निन्दा वाक्य अनिष्ट के बोधक द्वारा निवर्तक बनता है / यदि वाक्य से उसके अर्थ का ही परिज्ञान न होगा तो विहित और निषिद्ध कार्यों में इष्टानिष्टसाधनता का बोध न होने के कारण किसी भी पक्षपात के विना ही प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों होने लगेगी। तदुपरांत, विधिवाक्य भी अपने अर्थ के सम्यक् प्रतिबोधन के द्वारा ही अर्थी पुरुष की प्रवृत्ति में प्रेरक बनता हुआ दिखता है, तो ऐसा स्वरूपमात्र प्रतिपादक वाक्यों में भी सम्भव है, क्योंकि पदसमूहरूप वाक्य का स्वरूप दोनों स्थानों में समान है, और ऐसी कोई विशेषता नहीं है जिसके सद्भाव और अभाव से एक को प्रमाण और अन्य को अप्रमाण कहा जा सके। [ स्वरूपार्थक आगम अप्रमाण मानने पर आपत्ति ] तदुपरांत, यदि स्वरूपमात्रार्थ के वाचक वाक्य को प्रमाण नहीं मानेंगे तो 'मेध्या आप..... इत्यादि वाक्य से 'जल पवित्र है, दर्भ पवित्र है, अशुचि अपवित्र है' इस प्रकार का प्रमाणभूत स्वार्थपरिज्ञान नहीं होने से, विधि के अंगभूत वस्तु में भी समानरूप से प्रवृत्ति-निवृत्ति का अतिप्रसंग होगा। किन्तु ऐसा तो है नहीं क्योंकि सब लोग पवित्र वस्तु में ही प्रवृत्ति और अपवित्र में निवृत्ति करते हैं, यही दिखाई देता है। अतः इस प्रकार स्वरूप अर्थ वाचक वाक्यों से अर्थ के स्वरूप का बोध होने पर ही इष्ट कार्य में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति के दर्शन से यह स्पष्टरूप से ज्ञात होता है कि-स्वरूपार्थवाचक वाक्य प्रमाजनक होने पर ही प्रवृत्ति या निवृत्ति करने में विधिवाक्यों के सहकारी बनते हैं, अन्यथा नहीं। यदि उन से स्वार्थ का बोध न होने पर भी वे विधिवाक्य के सहकारी बनेंगे तो कोई भी वाक्य विधिवाक्य का सहकारी बन जाने की आपत्ति होगी।