________________ 420 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथालोकभावाऽभावकृतस्तत्र स्पष्टाऽस्पष्टप्रतिभास भेदः / नन्वालोकेनाऽप्यवयविस्वरूपमेवोद्भासनीयम् , तच्चेदविकलं मन्दालोके प्रतिभाति, कथं न तत्र तदवभासकृतः स्पष्टावभासः ? अन्यथा विषयावभासव्यतिरेकेणाऽपि ज्ञानप्रतिभासभेदे न ज्ञानावभासभेदो रूप-रसयोरपि भेदव्यवस्थापक: स्यात / अथावयविस्वरूपमेकमेवोभयत्र प्रतीयते, व्यक्ताव्यक्ताकारौ तु ज्ञानस्यात्मा तदप्यसत् , यतो यदि ज्ञानाकारौ तौ कथमवयविरूपतया प्रतिभातः ? तद्रूपतया च प्रतिभासनादवयव्याकारौं तावभ्युपगन्तव्यौ / न हि व्यक्तरूपतामव्यक्तरूपतां च मुक्त्वाऽवयविस्वरूपमपरमाभाति / तत् तस्यानवभासादभाव एव / व्यक्ताऽव्यक्तैकात्मनश्चावयविनो व्यक्ताऽव्यक्ताकारवद् भेदः / नहि प्रतिभासभेदेऽप्येकता, अतिप्रसंगात् / तन्न अस्पष्टप्रतिभासमन्धकारेऽवयविनो रूपमवयवाःप्रतिभासेऽपि प्रतिभातोति वक्तुयुक्तम् , उक्तदोषप्रसंगाद् / होकर ही भासित होगा। इस प्रकार दोनों पक्ष में अवयवी का किसी एक रूप ही प्रमाणित होता है अतः अवयवी के दोनों स्वरूप का अनुभव असिद्ध है। आपने जो दोनों स्वरूप के एकत्व का अनुभव दिखाया वह प्रतिभासशून्य, ( स्पष्ट और अस्पष्ट रूप का ) केवल अभिमान ही है / यदि अभिमान न होकर वहाँ सच्चा अनुभव होता तब तो तीव्रप्रकाशभाविज्ञान के जैसे मन्दप्रकाशभाविज्ञान भी स्पष्टरूप के प्रतिभास वाला हो जाता। [ अथवा मन्दप्रकाशभाविज्ञान के जैसे तीव्रप्रकाशभाविज्ञान भी अस्पष्टरूप के प्रतिभासवाला हो जाता।] [प्रतिभासभेद विषयभेदमूलक ही होता है ] पूर्वपक्षीः अवयवी एक होने पर भी आलोक के होने पर स्पष्ट, और आलोक के न होने पर अस्पष्ट, इस रीति से भिन्न भिन्न प्रतिभास हो सकता है। उत्तरपक्षी:-जब अवयवी एक है और प्रकाश से उसके स्वरूप का ही उद्भासन करना है तो वही परिपूर्णस्वरूप मन्द आलोक में भी स्फुरित होता है, तब मन्दालोकभाविज्ञान से उसका स्पष्ट प्रतिभास क्यों नहीं होगा ? यदि विषयावभास के विना भी ज्ञान में अवभासभेद शक्य होगा तब तो ज्ञान में अवभासभेद से जो रूप और रस का भेद स्थापित किया जाता है वह नहीं होगा। पर्वपक्षी:-अवयवी तो दोनों ( मन्द-तीव्रप्रकाशभावि ) ज्ञानों में एक ही स्वरूपवाला भासित होता है / तब जो व्यक्त अथवा अव्यक्त ( = अस्पष्ट) आकार भासित होता है वह विषयगत नहीं है किन्तु ज्ञानात्मक ही है। उत्तरपक्षी.-यह भी जूठा है / कारण, यदि वे दोनों आकार ज्ञान के हैं तो फिर विषयभूत अवयवीरूप से क्यों भासते हैं ? जब कि वे अवयविरूप से भासते हैं तब तो अवयवी के ही वे आकार मानने पड़ेंगे, क्योंकि व्यक्तरूपता और अव्यक्तरूपता को छोडकर तीसरा तो कोई अवयवीस्वरूप भासित होने का आप मानते नहीं है / तात्पर्य यह हुआ कि दृश्यमान पदार्थ व्यक्त या अव्यक्त भासता है किन्तु अवयवीरूप से तो नहीं भासता है अत: अवयवी का अभाव ही प्रसक्त हुआ। यदि उस अवयवी को व्यक्ताव्यक्तउभयस्वरूप मान लेंगे तब तो जैसे व्यक्त अव्यक्त आकारों में भेद प्रसिद्ध है वैसे तदाकार अवयवी में भी भेद ही प्रसक्त होगा, तो एक अवयवी कैसे सिद्ध होगा? प्रतिभास भिन्न भिन्न होने पर भी वस्तु को 'एक' मानेंगे तब तो रूप-रस के भेद की कथा समाप्त हो जायेगी।