________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 377 अथ 'पूर्वापरयोः प्रत्यक्षस्याऽप्रवृत्तेर्न कार्यकारणभावः अनुमानसिद्धावितरेतराश्रयदोषः' इति, तदपि प्रतिविहितम् / एवं हि सर्वशून्यत्वमायातमिति कस्य दूषणं साधनं वा केन प्रमाणेन ? इहलोकस्याप्यभावप्रसक्तेरिति प्रतिपादितत्वात् / __ अथ कार्यविशेषस्य विशिष्टकारणपूर्वकत्वसिद्धौ यथोक्तप्रकारेण भवतु पूर्वजन्मसिद्धिः, भाविपरलोकसिद्धिः कथं, भाविनि प्रमाणाभावात् ?-तत्रापि कार्यविशेषादेवेति ब्रमः / तथाहि-कार्यविशेषो विशिष्टं सत्त्वमेव / तच्च न सत्तासम्बन्धलक्षणम् , तस्य निषेत्स्यमानत्वात् / नाप्यर्थक्रियाकारित्व- . लक्षणम् , सन्ततिव्यवच्छेदे तस्याभावप्रसंगात् / तथाहिही देह से अन्वयी अर्थात् परस्पर सम्बद्ध ऐसी बाल-कुमारादि भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में ज्ञान का संचार देखा जाता है, तो इसी रीति से एक शरीर से ही अनुगत यानी परस्पर सम्बद्ध पूर्वजन्मावस्था और वर्तमानजन्मावस्था में भी ज्ञानसंचार का अनुमान हो सकता है। अब वह कौनसा एक शरीर माना जाय यह सोचना होगा, इसमें हमारी नेत्रादि इन्द्रिय से अनुभूयमान और रूपरसादि का आश्रयभूत, वर्तमानजन्म का जो शरीर है [ जिसको जैन परिभाषा में 'औदारिक' शरीर कहते हैं-] उसका जन्मान्तर के देहादि अवस्थाओं में अनुगम तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि मृत्यु के बाद उस शरीर का तो अग्नि आदि के दाह से ध्वंस हो जाता है / अत: अनुमान से यह सिद्ध होगा कि पूर्वोत्तरजन्मद्वयावस्थाओं में व्यापक तथा विज्ञान का संचरण करने वाला ( यानी विज्ञानवाहक ) कोई एक शरीर है जो उष्णतादि धर्म वाला है और जिसे जैन परिभाषा में 'कार्मणशरीर' कहा जाता है। जैसे आप (चार्वाक) पूर्वोत्तरावस्थाओं को एक अवस्थाता शरीर से अभिन्न मानकर ज्ञान का संचार मानते हैं तो उसी प्रकार पूर्वजन्मावस्था और उत्तरजन्मवस्थाओं को एक व्यापक अवस्थारूप कार्मणशरीर से हम भी कथंचिद् अभिन्न मानेंगे, अतः माता-पिता के शरीर से विलक्षण ऐसे, अपने एक जन्म के शरीररूप अवस्था में अन्तर्गत, चपलतादि धर्मों का अनुविधान जब उत्तरावस्था में देखते हैं तो पूर्वजन्म और वर्तमान जन्म की अवस्थाओं में एक ही अवस्थाता के धर्मों का अनुगमन क्यों . सिद्ध नहीं होगा ? एक प्राचीन श्लोक में भी कहा गया है कि- / ___'उक्त हेतु से, देह जिसके संस्कार का अवश्यमेव अनुसरण करता है उस पूर्वदेह का ही वह अन्वयी है यह मानना युक्तियुक्त है।' [ पूर्वापर भावों में कार्यकारणता न होने पर शून्यापत्ति ] पूर्वपक्षीः-पूर्वापर वस्तु में कार्य कारणभाव के ग्रहण में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं होती है। अनुमान प्रत्यक्षमूलक होने से, प्रत्यक्ष के अभाव में अनुमान से भी कार्यकारणभाव सिद्ध नहीं हो सकता, यदि अनुमान से यह सिद्ध किया जाय कि कार्य-कारणभाव का प्रत्यक्ष ग्रहण होता है, तो यहाँ अन्योन्याश्रय दोष होगा, अर्थात् प्रत्यक्ष से कार्यकारणभाव का ग्रहण होने पर तन्मूलक अनुमानप्रवृत्ति होगी और अनुमानप्रवृत्ति होने पर प्रत्यक्ष से कार्यकारणभाव का ग्रहण सिद्ध होगा। उत्तरपक्षीः-आपके इस कथन का प्रतिकार हो चुका है [ दे० पृ०३०१-९] / वह इस प्रकार कि कार्यकारणभाव को प्रत्यक्षसिद्ध न मानने पर बाह्यार्थ के साथ ज्ञान का सम्बन्ध सिद्ध न होने से -- सकल बाह्यार्थ की असिद्धि होगी, विचार करने पर तब ज्ञान भी असिद्ध हो जायेगा इस प्रकार सर्व