________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 387 नापि चार्वाकमतेऽसिद्धत्वम् , तेषां रचनावत्त्वेनावश्यंभावनी कार्यताप्रतिपत्तिरदृष्टोत्पत्तीनामपि क्षित्यादीनाम् , अन्यथा वेदरचनाया अपि कर्त दर्शनाभावाद न कार्यता / यतस्तत्राप्येतावच्छक्यं वक्तुम् न रचनात्वेन वेदरचनायाः कार्यत्वानुमानम् / कर्तृ भावभावानुविधायिनी तद्दर्शनाल्लौकिक्येव रचना तत्पूविकाऽस्तु, मा भूद वैदिकी। अथ तयोविशेषानुपलम्भाद् लौकिकीव वैदिक्यपि कर्तृ पूर्विका तर्हि प्रासादादिसंस्थानवत् पृथिव्यादिसंस्थानवत्त्वस्यापि तद्रूपताऽस्तु विशेषानुपलक्षणात् / तन्न हेतोरसिद्धता। मा भूदसिद्धत्वं तथाप्यस्मात् साध्यसिद्धिर्न युक्ता, नहि केवलात् पक्षधर्मत्वाद् व्याप्तिशून्यात् साध्यावगमः / 'ननु कि घटादौ कत-कर्म-करणपूर्वकत्वेन कार्यत्वादेाप्त्यनवगमः ?' अस्त्येवं घटगते कार्यत्वे प्रतिपत्तिस्तथापि न व्याप्तिः, सा हि सकलाक्षेपेण गृह्यते, अत्र तु व्याप्तिग्रहणकाल एव अर्थः-व्याप्यत्व ही साध्यबोध में प्रयोजक होने से जहाँ दोनों धर्म ( एक दूसरे के ) व्याप्य और व्यापक रूप में अभिमत है वहाँ भी व्याप्यता ही ( साध्य के ज्ञान का ) अंग ( प्रयोजिका ) है, भले ही उस में (साध्य की) व्यापकता हो किन्तु वह साध्य बोध की प्रयोजिका नहीं है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैमिनी के मीमांसादर्शन में, पृथ्वी आदि में कार्यत्व की असिद्धि नहीं है। .. [चार्वाक मत से भी हेतु असिद्ध नहीं ] चार्वाक दर्शन में भी कार्यत्व हेतु असिद्ध नहीं है / उनको भी अज्ञात-उत्पत्तिवाले पृथ्वी आदि में 'रचनावत्त्व' (रचना का तात्पर्य है पूर्वापरभाव से विन्यास) हेतु से अवश्यमेव कार्यता का स्वीकार करना होगा। जहां भी विशिष्ट प्रकार की रचना दिखायी देती है वहाँ कार्यत्व भी दिखता है / यदि इस बात को नहीं मानेंगे तो वेदशास्त्रों में रचनावत्त्व को देखने पर भी कर्ता न दिखायी देने से वहां कार्यत्व नहीं मान सकगे / कारण, वहाँ भी ऐसा बता सकते हैं कि वेदों में रचनात्व हेतु से कार्यत्व का अनुमान नहीं हो सकता / कारण, कर्ता के अन्वय-व्यतिरेक की अनुविधायी जो लौकिक ( शास्त्रों की ) रचना है उसी में कर्तृ पूर्वकत्व के देखे जाने से लौकिक रचना में भले ही कर्तृ पूर्वकत्व माना जाय, किन्तु वैदिक रचना में कर्तृ पूर्वकत्व मानने की जरूर नहीं है / यदि कहें कि-'लौकिक और वैदिक रचना ( आनुपूर्वीविशेष का विन्यास ) समान ही है, उन दोनों में कोई विशेषता उपलब्ध नहीं होती अतः वैदिक रचना को भी कर्तृ पूर्वक ही मानी जाय'-तो यहाँ भी कहा जा सकता है कि प्रासादादि का जैसा संस्थान है वैसा ही पृथ्वी आदि में भी है, दोनों में कोई विशेषता उपलब्ध न होने से पृथ्वी आदि का संस्थान भी कार्यत्वबोधक स्वोकार लो। इस प्रकार पृथ्वी आदि में चार्वाकमत से भी कार्यत्वहेतु की असिद्धि नहीं है। [नैयायिक के सामने विस्तृत पूर्वपक्ष] . पूर्वपक्षी:-कार्यत्व हेतु की असिद्धि मत हो, फिर भी उससे आपके इष्ट साध्य की सिद्धि युक्तिसंगत नहीं है / पक्ष में हेतु का सद्भाव सिद्ध हो जाय तो भी व्याप्तिशून्य हेतु से कभी साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती। . नैयायिकः-अरे ! क्या घटादि में कर्तृ-कर्म-करणपूर्वकत्व के साथ कार्यत्व की व्याप्ति आपको अज्ञात है ?