________________ 358 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 त्पादकत्वविरोधात् / b नाप्यनष्टम , क्षणभंगभंगप्रसंगात् / नाप्युभयरूपम, एकस्वभावस्य विरुद्धोभयरूपाऽसम्भवात् / नाप्यनुभयरूपम , अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकनिषेधस्य तदपरविधाननान्तरीयकत्वेनानुभयरूपताया अयोगात् / अथ यदि व्यापारयोगात् कारणं कार्योत्पादकमभ्युपगम्येत तदा स्यादयं दोषः-यदुत नष्टस्य व्यापाराऽसम्भवात् कथं कार्योत्पादकत्वम् , यदा तु प्राग्भावमात्रमेव कारणस्य कार्योत्पादकत्वं तदा कुत एतदोषावसरः ? नन्वेतस्मिन्नभ्युपगमे प्राग्भाविनोऽनेकस्मादुपजायमाने कार्य कुतोऽयं विभागः-इदमत्रोपादानकारणम् , इद च सहकारिकारणमिति, द्वयोरपि कार्येणानुविहितान्वय-व्यतिरेकत्वात् ? घट के कारण दंडचक्रादि अनेक हैं किन्तु घट में दंडादि की विशेषताएँ नहीं होती किन्तु मृत्पिंड की विशेषताएँ (समान वर्णादि) दिखती हैं अतः मृत्पिड घट का उपादान कारण है ।-निमित्त कारण दंडादि, दो प्रकार में से एक भी प्रकार की उपादानतावाला नहीं होता। [अब व्याख्याकार यह दिखात है कि किसी भी प्रकार की उपादानता मानी जाय, बौद्ध मत में वह नहीं घट सकती। तदनन्तर क्रमश: B और A विकल्पों की आलोचना करेंगे ] [ बौद्धमत में उपादान-उपादेयभाव में चार विकल्प] व्याख्याकार कहते हैं कि जो एक ही स्वभाव वाले और पूर्वापरभाव से अवस्थित हैं वे सब ज्ञानात्मकक्षण अगर प्रतिक्षण नश्वरस्वभाववाले हैं तो उनमें उपादान-उदादेयभाव की स्थापना ही नहीं की जा सकती। वह इस प्रकार-(a) उत्तरक्षण को जन्म देने वाला पूर्वक्षण द्वितीयक्षण में नष्ट हो कर उत्तरक्षण को उत्पन्न करता हैं या (b) नष्ट न हो कर यानी जीवित रह कर], या (c) नष्टानष्ट उभयरूप से, अथवा (d) न नष्ट हो कर और न जीवित रहकर-अनुभयरूप से ? इनमें से (1) 'नष्ट होकर' यह नहीं बन सकता क्योंकि जैसे चिर पूर्व में नष्ट होने वाला क्षण उस कार्य का उत्पादक बने इसमें विरोध है, उसी प्रकार निरन्तर नष्ट होने वाला क्षण भी उस कार्य का उत्पादक बने इस में विरोध आयेगा / (2) 'द्वतीयक्षण में जीवित रहकर' यह भी नहीं मान सकते क्योंकि तब अनेक क्षणवृत्ति उसको मानना होगा और क्षणभंगवाद ही समाप्त हो जायेगा। (3) 'उभयरूप भी नहीं कह सकते क्योंकि एक स्वभाव वाले एक क्षण में दो विरुद्ध स्वरूपों का सम्भव नहीं है। (4) 'अनुभयरूप से' यह भी नहीं कह सकते-क्योंकि जहाँ दो रूप में परस्पर व्यवच्छेदकता होती है वहाँ एकरूप के निषेध से दूसरे का विधान अर्थतः अविनाभावी यानी अवश्यंभावी होने से अनुभयरूपता यहाँ घट ही नहीं सकती। पूवपक्षी:-अगर हम व्यापार के द्वारा नष्ट कारण को कार्योत्पादक मानें तब विरोध दोष सावकाश है क्योंकि जो उत्पन्न होने के बाद दूसरे ही क्षण में नष्ट हो गया उसका उत्तरक्षणरूप कार्य के उत्पादन में कोई व्यापार सम्भवित नहीं है / किन्तु, हम तो कारण को पूर्ववृत्तिता को ही कार्योत्पादकता मानते हैं तो यहाँ विरोधदोष को अवसर ही कहाँ है ? उत्तरपक्षी:-इस मान्यता में यह प्रश्न होगा कि जब एक कार्य अनेक कारणों से उत्पन्न होता है तो वहाँ 'यह उपादान कारण' और 'यह सहकारिकारण' ऐसा विभाग ही कैसे होगा जब कि दोनों प्रकार के कारणों में पूर्ववृत्तिता अर्थात् कार्य का अनुविधान करने वाला अन्वय-व्यतिरेक तो तुल्य है ?