________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 341 तदसिद्धौ तु तत्परिकल्पनमयुक्तम् , इतरेतराश्रयप्रसंगात् / तथाहि-बोधस्य शक्तिविशेषसिद्ध लं प्रति ग्राहकत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्च तच्छक्तिसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / तन्न बोधस्य नीलं प्रति ग्राहकत्वसिद्धिः / तस्माद् व्यतिरिक्तेऽपि बोधेऽभ्युपगते सहोपलम्भनियमात् स्वसंवेदनमेव युक्तम् / ___परमार्थतस्तु सुखादयो नीलादयश्चापरोक्षा इत्येतावदेव भाति, निराकारस्तु बोधः स्वप्नेऽपि नोपलभ्यते इति न तस्य सद्भाव इति कथं तस्यार्थग्राहकत्वम् ? अत एव ते प्रमाणयन्ति-इह खलु यत् प्रतिभाति तदेव सद्व्यवहृतिपथमवतरति, यथा हृदि प्रकाशमानवपुः सुखम् , न तत्काले पीडाऽनुद्भासमाना समस्ति, विज्ञप्तिरेव च नीलादिरूपतया सकलतनुभृतामामातीति स्वभावहेतुः / तदेवमर्थग्राहकत्वस्याप्यसिद्धः, जडस्य प्रकाशविरुद्धत्वाच्च नार्थग्राहकत्वमपि बौद्धदृष्ट्या युक्तम् / और नोलादे में ग्राह्यता का होना नहीं मान सकेंगे। यदि ऐसा कहें कि-'व्यापार अपर व्यापार के बिना ही नील के प्रति (स्वतः) व्याप्रियमाण है क्योंकि वह (स्वतः) व्यापार रूप ही है तो यह ठीक नहीं, क्योंकि अपने स्वरूप मात्र से कोई अन्य के प्रति ग्रहणव्यापार रूप हो सकता है तो फिर नील का भी अपना कुछ स्वरूप है उस स्वरूप से नील भी बोध के प्रति ग्रहणव्यापार रूप मानने की आपत्ति आयेगी / तात्पर्य, नीलादि में ग्राह्यता सिद्ध न हुयी। [बोधजन्य ग्रहणक्रिया नील से भिन्न है या अभिन्न ?] यह भी विचारणीय है कि-विज्ञान से अगर नील के प्रति यानी नीलाभिमुख, ग्रहणक्रिया उत्पन्न होती है तो वह नील से भिन्न है या अभिन्न ? अगर भिन्न है तो उस ग्रहणक्रिया से 'नील' ग्राह्य नहीं बनेगा क्योंकि भिन्न वस्तु का कोई ग्राह्य नहीं हो सकता। अगर ग्रहणक्रिया नीलाभिन्न है तब तो विज्ञानजन्यग्रहणक्रिया से अभिन्न नील भी विज्ञानजन्य हो जाने से अनायास नील में ज्ञानात्मकता सिद्ध हुयी क्योंकि विज्ञानजन्य उत्तरक्षण ज्ञानात्मक ही होती है। यदि विज्ञान में ऐसी शक्ति मानी जाय जिससे विज्ञान में ही नील के प्रति ग्राहकता की और नील में ही विज्ञान से निरूपित ग्राह्यता को उपपत्ति हो सके, तो यह शक्ति की कल्पना तभी ही युक्त हो सकती है जब नील और विज्ञान में क्रमशः ग्राह्यता और ग्राहकता पहले से ही सिद्ध हो, क्योंकि "शक्तयः सर्वभावानां कार्यार्थपत्तिगोचराः" इस पूर्वोक्त न्याय से हर कोई शक्ति उसके परिणाम से ही ज्ञात होती है। जब तक ग्राह्यता-ग्राहकतास्वरूप परिणाम ही असिद्ध है तब तब शक्ति की कल्पना पंगु है, अर्थात् युक्त नहीं है / कारण, इतरेतराश्रय दोष प्रसंग है --जैसे: विज्ञान में ग्राहकता की सिद्धि होने पर तत्प्रयोजक शक्ति की कल्पना की जायेगी और शक्ति की कल्पना करने पर ही नील और विज्ञान में क्रमश: ग्राह्यता-ग्राहकता सिद्ध होगी, इस प्रकार इतरेतराश्रयता स्पष्ट है। निष्कर्ष, विज्ञान में नील के प्रति ग्राहकता की असिद्धि अशक्य है। अतः नील को चाहे विज्ञान से अतिरिक्त माने तो भी दोनों का उपलम्भ-संवेदन समकाल में साथ साथ होने से विज्ञानवत् ही नीलादि भी स्वप्रकाश ही मानना युक्तियुक्त है। वास्तव में तो विज्ञान और नील में भेद भी नहीं है यह अभी दिखाते हैं [बौद्धदृष्टि से विज्ञान में अर्थवाहकता अघटित ] वास्तव में (भेद तो भासित ही नहीं होता किन्तु) 'सुखादि या नीलादि अपरोक्ष है' इतना ही भासित होता है। कहीं भी (नीलादि का अलग प्रतिभास और स्वतन्त्र यानी) निराकार अर्थात नीलादि आकार से असंसृष्ट विज्ञान का प्रतिभास स्वप्न में भी होता नहीं। अतः जब निराकार बोध