________________ 340 सम्मतिप्रकरण नयकाण्ड-१ रूपनिमग्नं चकासत् तृतीयं स्वरूपं भवेत् / तथाहि-तस्य तदुन्मुखत्वं तद्वयापारः, स च व्यापारो यदि नोले व्याप्रियते तदा तत्राप्यपरो व्यापार इत्यनवस्था / अथ न व्याप्रियते, न तबलाद् बोधस्य ग्राहकत्वं नीलादेस्तु ग्राह्यत्वम् / अथ व्यापारस्यापरव्यापारव्यतिरेकेणापि नीलं प्रति व्यापृतिरूपता, तस्य तद्रूपत्वात् / ननु नीलस्यापि स्वं स्वरूपं विद्यते इति बोधं प्रति ग्रहणव्यापृतिः स्यात् / किंच. बोधेन यदि नीलं प्रति ग्रहणकिया जन्यते सा नीलाद् भिन्नाभिन्ना वा? भिन्ना चेव ? न तया तस्य ग्राह्यत्वम् , भिन्नत्वादेव / अथाभिन्ना तहि नीलादेनिरूपता, ज्ञानजन्यत्वावुत्तरज्ञानक्षणवत् / अथ ज्ञानस्यवंभूता शक्तिर्येन तस्य नीलं प्रति ग्राहकता, नीलादेस्तु तं प्रति ग्राह्यता। ननु बोधस्य ग्राहकत्वे नीलादेस्तु ग्राह्यत्वे सिद्ध शक्तिपरिकल्पना युक्ता, शक्तेः कार्यानुमेयत्वात् , नहीं होता' इस व्याप्ति के आधार पर विज्ञान को अवेद्य कहेंगे तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि हम नीलादि को नेत्रादि का ही कार्य मान लेते है, अब तो वह ग्राह्य कैसे होगा? [नित्य-अनित्य भेद से ग्राह्यत्व की उपपत्ति अशक्य ] यदि ऐसा कहा जाय-विज्ञान बोधस्वरूप है और नीलादि प्रकाश्य यानी बोध्यस्वरूप है, बोध. स्वरूपता निरपेक्ष होने से बोध नित्य होता है और नीलादि की बोध्यस्वरूपता बोधाधीन होने से वह नीलादि अनित्य होता है, जो अनित्य है वही ग्राह्य है। तो यह बात ठीक नहीं है, स्तम्भादि पदार्थों का अपरोक्षतास्वरूप नेत्रादि इन्द्रियों से उत्पन्न होता है तो स्तम्भादि को भले ही अनित्य मानो किन्तु इतने मात्र से वह ग्राह्य कैसे हो गया ? 'जो जिस से उत्पन्न होता हो वह उसका ग्राह्य' ऐसा कोई नियम नहीं है / वरना, मिट्टी से उत्पन्न घट मिट्टी का ग्राह्य बन जाने का अतिप्रसंग होगा। इस कारण, अपरोक्षस्वरूपवाले स्तम्भादि को स्वप्रकाश ही मानना ठीक है। बोध, जिस को आप नित्य बता रहे हो वह चाहे नित्य हो या अनित्य, (बौद्धमत में तो अनित्य ही है) किन्तु वह भी उसी काल में भासित होता है जिस काल में स्तम्भादि भासित होते हैं, अत: बोध को वेदक (=ग्राहक) बताना अयुक्त है / कारण, समान काल में भासित होने वाले दो पदार्थों में किस को ग्राहक कहें और किस को ग्राह्य-इस में कोई विनिगमना न होने से यदि ग्राह्य-ग्राहकभाव मानना ही है तो दोनों को अन्योन्य ग्राह्य-ग्राहक मानने की आपत्ति होगी। [ उन्मुखत्वस्वरूप ग्राहकत्व की अनुपपत्ति ] यदि बोध नीलादि-उन्मुख होने से ग्राहक माना जाय तो यहाँ प्रश्न है कि यह नीलादि-उन्मुखता क्या है ? 'नीलादि काल में बोध की सत्ता' यही नीलादि-उन्मुखता हो तब तो 'बोध काल में नीलादिसत्ता' रूप बोधोन्मुखता नीलादि में भी युक्ति युक्त होने से नीलादि भी बोध का ग्राहक बन जायेगा / यदि कुछ अन्यस्वरूप (यानी नीलादिग्रहणव्यापाररूप) ही उन्मुखता मानी जाय तो वह उन्मुखता भी अपने स्वरूप में अवस्थित होकर भासेगी और वह स्वप्रकाश वस्तु का तीसरा स्वरूप हुआ। [एक तो बोधस्वरूप विज्ञान दूसरा बोध्यस्वरूप नीलादि और तीसरा ग्रहणस्वरूप व्यापार] जैसे देखिये, बोध की नीलोन्मुखता यह नीलग्रहणव्यापार स्वरूप होगी, और यह व्यापार यदि नील के प्रति व्याप्रिप्रमाण (यानी सक्रिय होगा) तो व्यापार का भी अन्य व्यापार मानना होगा क्योंकि उसके बिना वह व्याप्रियमाण नहीं हो सकेगा, इस प्रकार नये नये व्यापार को मानने में अनवस्था दोष होगा। यदि वह व्याप्रियमाण न माना जाय (अर्थात् निष्क्रिय माना जाय) तो उसके बल से बोध में ग्राहकता