________________ 302 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथेहजन्मादिभूतमातापितृसामग्रीमात्रादप्युत्पत्तेः कादाचित्कत्वं युक्तमेवेहजन्मनः / नन्वेवं प्रदेशसमनन्तरप्रत्ययमात्रसामग्री विशेषादेव धूम-प्रत्यक्षसंवेदनयोः कादाचित्कत्वमिति न सिध्यति वह्निबाह्यार्थप्रतीतिरिति सकलव्यवहाराभावः। अथाकारविशेषादेवानन्यथात्वसंमविनोऽनल-बाह्यार्थसिद्धिः, तोहजन्मनोऽपि प्रज्ञा-मेधाद्याकारविशेषतः एव मातापितृव्यतिरिक्तनिजजन्मान्तरसिद्धिः / तथा, यथाकारविशेष एवायं तैमिरिकादिज्ञानव्यावृत्तः प्रत्यक्षस्य बाह्यार्थमन्तरेण न भवतीति निश्चीयते-अन्यथा बाह्यार्थासिद्धबौद्धाभिमतसंवेदनाऽद्वैतमेवेति पुनरपि व्यवहाराभावः-तथेहजन्मादिभूतप्रज्ञाविशेषाद् इहजन्मविशेषाकारो निजजन्मान्तरप्रतिबद्ध इति निश्चीयतामनुमानतः। सम्पन्न होती है / जहाँ 'कार्यकारणभाव हो वहाँ ही कालिक मर्यादा हो' ऐसा कार्यकारणभावपूर्वकत्व का, प्रत्यक्ष से कालिक मर्यादा में उपलभ्भ नहीं है जिससे यह कह सकें कि इस जन्म और पूर्व जन्म का कार्य-कारणभाव नहीं होगा तो इस जन्म में कादाचित्कत्व [-कालिक मर्यादा] भी नहीं होगा। क्योंकि कार्यकारणभाव ही यहाँ प्रत्यक्ष से असिद्ध है। प्रास्तिकः-यदि ऐसा मानेंगे तो संवेदन और बाह्यार्थ के बीच भी प्रत्यक्ष से कार्यकारणाभाव असिद्ध होने से बाह्यार्थ सिद्ध नहीं होगा तो विज्ञानाद्वैत का साम्राज्य हो जायेगा / विज्ञान के ऊपर विविध विकल्पों से विचार करने पर उसका भी अभाव ही प्रतीत होगा, तो 'सर्वं शून्यम्'-शून्यवाद प्रसक्त होगा / फलतः सकल व्यवहारों का भी उच्छेद होने का अतिप्रसंग आयेगा। इसलिये यह अवश्य मानना होगा कि संवेदन में बाह्यार्थसंबन्धिता प्रत्यक्ष से ही प्रतीत होती है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो इहलोक भी सिद्ध न हो सकेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान में इहलोक यानी बाह्यार्थ से जन्यता का प्रत्यक्ष नहीं मानेंगे तो प्रत्यक्षज्ञान में बाह्यार्थ की ग्राहकता का भी असंभव हो जायेगा। इस प्रकार जैसे इहलोक की सिद्धि के लिये 'प्रत्यक्ष ही बाह्यार्थ के साथ अपनी सम्बन्धिता का ग्राहक है' यह मानना पड़ेगा, तो परलोक की सिद्धि में भी वही साधन मौजूद है अत: अनुमान से परलोक की कर नहीं है। तात्पर्य यह है कि जैसे 'प्रत्यक्ष में बाह्यार्थप्रतिबद्धत्व प्रत्यक्षग्राह्य है' इस तथ्य की ऊपर दशित-इहलोक सिद्धि की अन्यथानुपपत्ति प्रयुक्त अनुमान से सिद्धि की जाती है उसी प्रकार कार्यहेतुक अनुमान से इस जन्म में जन्मान्तरपूर्वकत्व भी सिद्ध किया जाता है। उपरांत, कादाचित्कत्व हेतु से भी प्रत्यक्षज्ञान में बाह्यार्थसंबंधिता की सिद्धि होती है, जैसेः प्रत्यक्षज्ञान यदि बाह्यार्थ जन्य नहीं होगा तो दूसरा कोई उसका हेतु न होने से उसके सदा सत्त्व-असत्त्व की आपत्ति होगी इस से प्रत्यक्ष में बाह्यार्थ जन्यत्व यानी बाह्यार्थसंबंधिता सिद्ध होती है / तथा, धूम में भी ठीक कादाचित्कत्व हेतु से अग्निसंबंधिता उपरोक्त रीति से सिद्ध होती है। जैसे कादाचित्कत्व हेतु से उपरोक्त सिद्धि होती है, ठीक उसी प्रकार कादाचित्कत्व हेतु से उपरोक्त 'इस जन्म में परलोक संबंधिता' की भी सिद्धि की जा सकती है / जैसे वर्तमान जन्म यदि जन्मान्तरजन्य न होगा तो अन्य कोई उसका जनक न होने से वह सदा सत् या सदा ही असत् रहेगा। तो इस रीति से अग्नि संबंधिता और बाह्यार्थ संबंधिता की तरह इहलोक में परलोक संबंधिता की भी अनुमान से सिद्धि हो जाती है / [केवल मात-पिता से जन्म मानने पर अतिप्रसंग] नास्तिक:-इस जन्म को उत्पत्ति उसके प्रारम्भ में माता-पितारूप विद्यमान सामग्री मात्र से ही हुई है-इतना मान लेने पर कालिक मर्यादा [कादाचित्कत्व] की संगति बैठ जाती है. तो परलोकसिद्धि कैसे होगी?