________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवाद: 335 अथापि 'पूर्वदृष्टं पश्यामि' इति व्यवसायात प्रागर्थः सिध्यति, प्रागर्थसत्तां विना दृश्यमानस्य पूर्वदृष्टेनैकत्वगतेरयोगात् / केन पुनरेकत्वं तयोर्गम्यते ? किमिदानीन्तनदर्शनेन पूर्वदर्शनेन वा ! न तावत् पूर्वदर्शनेन, तत्र तत्कालावधेरेवार्थस्य प्रतिभासनात / न हि तेन स्वप्रतिभासिनोऽर्थस्य वर्तमानकालदशनव्याप्तिरवसीयते, तत्काले साम्प्रतिकदर्शनादेरभावात / न चासत प्रतिभाति, दर्शनस्य वितथत्वप्रसंगात् / नापीदानीन्तनदर्शनेन पूर्वदर्शनादिव्याप्तिधलादेरवसीयते, तद्दर्शनकाले पूर्वदृक्कालस्यास्तमयात / न चाऽस्तमितपूर्वदर्शनादिसंस्पर्शमवतरति प्रत्यक्षम् , वितथत्वप्रसंगादेव / तस्माद् अपास्ततत्पूर्वगादियोगं सर्व वस्तु दृशा गह्यते / 'पूर्वदृष्टतां तु स्मतिरुल्लिखति' तदपास्तम् , दृष्टतोल्लेखाभावात् / न च स एवायम्' इति प्रतीतिरेका, 'सः' इति स्मृतिरूपम् , 'प्रयम्' इति तु दृशः स्वरूपम् , तत्परोक्षाऽपरोक्षाकारत्वान्नकस्वभावौ प्रत्ययौ, तत् कुतस्तत्त्वसिद्धिः ? घट सकता, कर्म कर्तृ भाव भिन्नकालीन वस्तु में ही शक्य है / यदि तीनों को भिन्नकालीन माने तो भी तीनों का स्वतन्त्र प्रतिभास होता है, कर्म या कर्ता रूप से नहीं होता, अत: कर्मता आदि का किसी भी प्रकार उपलम्भ संभव नहीं है। __ यदि ऐसा कहा जाय-दर्शन (निर्विकल्पक ज्ञान ) के पूर्वकाल में नीलादि की सत्ता होने पर भी उसका भान नहीं होता, और दर्शन का उदय होने पर ही उसका भान होता है, अतः नीलादि में दर्शननिरूपित कर्मता सिद्ध होती है। तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दर्शन से पूर्वकाल में अर्थसत्ता सिद्ध नहीं है / दर्शन से केवल अपने काल में विद्यमान ही अर्थ का ग्रहण होता है, अत: नीलादि का भान ल में ही होता है, उसके पूर्वकाल में नहीं होता, तो जब अर्थसत्ताग्राहक दर्शन ही पूर्व काल में नहीं है तो अर्थ की पूर्वकालीन सत्ता कैसे सिद्ध होगी ? ऐसा नहीं है कि इस काल का दर्शन पूर्वकालीन अर्थ के सद्भाव को व्यक्त करे-यदि ऐसा होता तब तो एक ही अर्थ का प्रतिभास सतत ही उत्तरकालीन दर्शनों से होता ही रहेगा / यदि दूसरे पूर्वकालीन दर्शन से पूर्वकालीन अर्थ की प्रतीति मानेंगे तो पूर्वकालीन दर्शन के भी पूर्वकाल में अर्थ के सद्भाव का साधक अन्य दर्शन मानना पडेगा. इस प्रकार पूर्व पूर्व अर्थसत्ता का साधक पूर्व-पूर्व दर्शन मानते रहेंगे तो कहीं भी उसका अन्त न आयेगा / इस अनवस्था दोष के कारण यही मानना पडेगा कि हर कोई नीलादि अपने दर्शन काल में ही प्रतिभासित होते हैं / ऐसा मानेंगे तब तो दर्शन के पूर्वकाल में अर्थ की सिद्ध नहीं हो सकती। [विज्ञान के पूर्वकाल में अर्थसत्ता की असिद्धि ] बाह्यवादी:-'पूर्वदृष्ट को देखता हूं' इस प्रकार के व्यवसाय ( =दर्शन ) से पूर्वकाल में अर्थसत्ता सिद्ध होती है, यदि पूर्वकाल में अर्थ न होता तो वत्तमान में दृश्यमान और पूर्वदृष्ट वस्तु के ऐक्य की प्रतीति का उदय न होता। विज्ञानवादीः-किस व्यवसाय से आप पूर्वदृष्ट और दृश्यमान के ऐक्य की बात करते हैं ? (1) वर्तमानक.लोन दर्शन से या (2) पूर्वकालीन दर्शन से ? (2) पूर्वकालीन दर्शन से ऐक्य का भान शक्य नहीं है, क्योंकि पूर्वकालीनदर्शन में पूर्वकालावधिक अर्थ का ही प्रतिभास शक्य है। पूर्वकालीनदर्शन से 'अपने में भासमान अर्थ वर्तमान काल तक रहने वाला है' इस प्रकार का अवगाहन शक्य नहीं है, क्योंकि पूर्वकाल में वर्तमानकालावगाहि दर्शन का ही अभाव है। यह भी नहीं कह सकते कि 'उत्तरकालीन दर्शन यद्यपि पूर्वकाल में असत् है तो भी उसका प्रतिभास पूर्वकालीन दर्शन में होता है।'