________________ 310 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 परोक्षस्यार्थस्य सामान्याकारणाऽन्यतः प्रतिपत्तौ लोकप्रतीतायां बौद्धस्तु कार्यकारणभावादिलक्षणः प्रतिबन्धस्तन्निमित्तत्वेन कल्पितः / तदुक्तम् कार्यकारणभावाद वा स्वभावाद वा नियामकाद / अविनामावनियमोऽदर्शनान न दर्शनाद // तथा-अवश्यंभावनियमः कः परस्यान्यथा परैः / प्रर्थान्तरनिमित्ते वा धर्मे वाससि रागवत् // [प्र. वा० 331-32 ] इति च / तथाहि क्वचित पर्वतादिदेशे धूम उपलभ्यमानो यद्यग्निमन्तरेणैव स्यात्तदा पावकधर्मानुवृत्तितस्तस्य तत्कार्यत्वं यनिश्चितं विशिष्ट प्रत्यक्षानपलम्भाभ्यां तदेव न स्यादित्यहेतोस्तस्याऽसत्त्वात क्वचिदप्यूपलम्भो न स्यात. सर्वदा सर्वत्र सर्वाकारेण वोपलम्भः स्यात. अहेतोः सर्वदा सत्त्वात / होता है अत एव हेतु गत साहचर्य का नैयत्य ही अनुमानप्रयोजक होता है, व्यापक [-साध्य] गत साहचर्य का नैयत्य वैसा नहीं होता / यही कारण है कि जहां साध्य और हेतु अन्योन्य समान व्याप्ति वाले होते हैं वहाँ भी व्याप्यरूप से जिसका ज्ञान या प्रतिपादन किया जाय उससे ही दूसरे अर्थान्तर का बोध होता है। इस प्रकार हेतु में साध्य का नैयत्य ज्ञात रहे तो अर्थान्तर के अनुमान में न कोई बाध हो सकता है, न तो कोई प्रतिबन्ध यानी सत्प्रतिपक्षदोष हो सकता है। क्योंकि जो हेतु साध्यनियत है वह हेतु साध्य का बोध करावे और न भी करावे ऐसा स्वरूप भेद संगत नहीं है। [विरुद्ध आदि दोषों का निराकरण ] उपरोक्त रीति से जब परलोकानुमान निष्कण्टक है तब विशेषविरुद्ध दोष यानी हेतु इष्ट विधातक होना यह दोष अवसर प्राप्त नहीं है क्योंकि इष्ट परलोक को कार्यत्व हेतु से निष्कण्टक सिद्धि होती है / उसी प्रकार, परलोक सिद्धि में प्रतिबन्ध करने वाला अर्थात् उसके अभाव को सिद्ध करने वाला काई प्रति हेतु सिद्ध न होने से सत्प्रतिपक्ष यानी विरुद्धाव्यभिचारी दोष का भी यहाँ संभव नहीं है। यह कहने का अभिप्राय यह है कि नास्तिक ने जो पहले अनमान के खण्डन में यह कहा था कि सभी अनुमानों में विरुद्ध दोष, अनुमानविरोध दोष और विरुद्धाव्यभिचारी दोष सावकाश होने के कारण अनुमान प्रमाण नहीं है-यह नास्तिक का खण्डन स्वयं खण्डित हो जाता है / दूसरी बात यह है कि, हमने पूर्वोक्त रीति से अनुमान के प्रामाण्य को और अनुमान से परलोक को सिद्ध कर दिखाया है अतः नास्तिक ने जो कहा था कि अविनाभावसंबन्ध का ग्रहण शक्य नहीं है, क्योंकि हेतु और साध्य भिन्न भिन्न अवस्था में, देश में और काल में भिन्न प्रकार के होते हैं".... इत्यादि, यह सब असंगत ठहरता है। [ अर्थान्तरबोध का निमित्त कार्यकारणभावादिसम्बन्ध-बौद्धमत ] लोक में जो किसी एक अर्थ से अन्य परोक्ष अर्थ की सामान्याकार से प्रतीति का होना अनुभव सिद्ध है, बौद्धों ने उनके निमित्तरूप में कार्य-कारणभाव और स्वभाव, दो सम्बन्ध की कल्पना की है / जैसे कि प्रमाणवात्तिक में कहा है ___“कार्यकारणभाव [ अपरनाम तदुत्पत्ति ] रूप नियामक अथवा स्वभावरूप नियामक के निमित्त से अविनाभावनियम होता है। केवल [विपक्ष में] अदर्शन और [सपक्ष में] दर्शनमात्र से नहीं होता। वरना, इन दो को निमित्त न मानने पर, पर का पर के साथ [ यानी साध्य का साधन