________________ 252 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 उदकतापे त्वतिशयेन क्रियमाणे तदाश्रयस्यैव क्षयान् नातिताप्यमानमप्युदकमग्निरूपतामासादयति / विज्ञानस्य त्वाश्रयोऽत्यभ्यस्यमानेऽपि तस्मिन् न क्षयमुपयातीति कथं तस्य व्यवस्थितोत्कर्षता? ! न च 'विज्ञानमपि प्राक्तनाभ्यासादासादितातिशयं पूर्वमेव विनष्टम् , अपराभ्यासादन्यदतिशयवदुत्पन्नमिति कथं पूर्वाभ्याससमासादितोऽतिशयो नाभ्यासान्तरापेक्षो येन व्यवस्थितोत्कर्षता तस्यापि न स्यादिति' वक्तु युक्तम् , तत्र पूर्वाभ्यासजनितसंस्कारस्योत्तरत्रानुवृत्तेः, अन्यथा शास्त्रपरावर्तनादिवैयर्थ्यप्रसंगात्। नापि 'यदुपचयतारतम्यानुविधायी यदपचयतरतमभावः तस्य तद्विपक्षप्रकर्षगमनादात्यन्तिकः क्षयः' इत्यत्र प्रयोगे श्लेष्मणा व्यभिचार उद्धावयितु शक्यः-'किल निम्बाद्यौषधोपयोगात प्रकर्षतारतम्यानुभववतस्तरतमभावापचीयमानस्पापि श्लेष्मणो नात्यन्तिकः क्षय इति'-यतस्तत्र निम्बाद्यौषधोपप्रकर्ष जैसे सीमित है ) इसी प्रकार ज्ञान में भी सीमित ही होगा, तो ज्ञान में चरमप्नकर्ष का संभव कसे माना जाय ?"-किन्तु यह कथन विचारशून्य है, प्रथम प्रयत्न से लम्बा नहीं कूदा जा सकता उसका कारण यह नहीं है कि उस समय अतिशय अनुपचित है-किन्तु कारण इस प्रकार है-आद्य प्रयत्नकाल में शरीर में तम बहलता के कारण जड़ता भरी रहती है, व्यायाम के द्वारा कफधातु का अपनयन और पटुता का संपादन जब तक नहीं किया जाता तब तक उस जडता के कारण उतना लम्बा नहीं कूदा जा सकता। व्यायामाभ्यास द्वारा जब कफ धातु के वैषम्य को दूर करके पटुता प्राप्त कर जडता को निकाल दी जाती है तब उतना लम्बा कूदा जा सकता है। सारांश, अभ्यास का प्रयोजन अतिशय का उपचय नहीं किन्तु जडता का अपाकरण है। दूसरी ओर ज्ञान के लिये बार बार प्रयत्न करने द्वारा जिस अतिशय का संपादन किया जाता है वह नये नये अतिशय के संपादन में पूर्व पूर्व अभ्यास की पुनः पुन: अपेक्षा नहीं करता है किन्तु नये नये अभ्यास द्वारा नया नया अतिशय उत्पन्न करने में सक्रिय रहता है, अतः ज्ञान के उत्कर्ष को सीमा नहीं रहती। जैसे जैसे नया नया अभ्यास जारी रहता है वैसे वैसे नये नये प्रकृष्ट प्रकृष्टतर अतिशय उत्पन्न होता जाता है। यावद् प्रकृष्टतम अतिशय उत्पन्न होने पर रागादि का आवरण सर्वथा क्षीण हो जाने पर समस्त वस्तु के संपूर्ण ज्ञान का उदय होता है / यही ज्ञान की चरम प्रकृष्टावस्था है। [ जलतापवत सीमित ज्ञान की शंका का उत्तर ] ___लंघन की बात जैसे प्रस्तुत में निरुपयोगी है उसी प्रकार जलताप की बात भी निरुपयोगी है। पानी को यदि बेहद तपाया जाय तो ताप के आश्रय पानी का विनाश ही हो जाता है, अत एव पानी को अत्यन्त तपाने पर वह अग्निस्वरूप धारण नहीं कर सकता। विज्ञान की बात इससे अलग है, विज्ञान का अधिक अधिक अभ्यास किया जाय तो उसका आश्रयभूत जीव विनष्ट नहीं हो जाता, तो जलताप के दृष्टान्त से विज्ञान का उत्कर्ष सीमित बताना कहाँ तक उचित है ? यदि यह शंका करें कि-"प्राथमिक अभ्यास से अतिशय प्राप्त करने वाला पूर्व विज्ञान तो दूसरे क्षण में नये अभ्यास के पूर्व ही नष्ट हो जाता है। नये अभ्यास से नया सातिशय विज्ञान उत्पन्न होता है। तो अब पूर्व अभ्यास से प्राप्त अतिशय, उत्कर्ष के लिये नूतनाभ्याससापेक्ष तो रहा नहीं फिर विज्ञान का उत्कर्ष भी सीमित क्यों नहीं होगा ?"-यह शंका उचित नहीं है। कारण, पूर्वविज्ञान नष्ट हो जाने पर भी आत्मा में पूर्वाभ्यासोत्पन्न संस्कार उत्तरकाल में भी अनुवर्तमान रहता है अतः उस संस्कार के उत्कर्ष की क्रमशः वृद्धि होती रहती है, यावत् चरमोत्कर्ष प्राप्त करने वाले संस्कार से उत्कृष्ट विज्ञान