________________ 272 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 मानः प्रतिनियतानां प्रतिनियतदेशत्तिनां प्राणिनां प्रतिनियतकाले प्रतिनियतकर्मफलसंसूचकत्वेन प्रतिपद्यते। उक्तं च तत्र-नक्षत्र-ग्रहपञ्जरमहनिशं लोककर्मविक्षिप्तम् / भ्रमति शुभाशुभमखिलं प्रकाशयत् पूर्वजन्मकृतम् // [ ] अतो ज्योतिःशास्त्रं ग्रहोपरागादिकमिव धर्माधर्मावपि प्रमाणान्तरसंवादतोऽवगमयति तेन ग्रहोपरागादिवचनविशेषस्य धर्माऽधर्मसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वमपि सिद्धम् / तत्सिद्धौ सकलपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वमपि सिद्धिमासादयति / न हि धर्माऽधर्मयोः सुख-दुःखकारणत्वसाक्षात्करणं सहकारिकारणाशेषपदार्थ-तदाधारभूतसमस्तप्राणिगणसाक्षात्करणमन्तरेण संभवति / सर्वपदार्थानां परस्परप्रतिबन्धादेकपदार्थसर्वधर्मप्रतिपत्तिश्च सकलपदार्थप्रतिपत्तिनान्तरीयका प्राक् प्रतिपादिता / अतो भवति सकलपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वसिद्धिरतो हेतोर्वचनविशेषस्य, तत्स्द्धिौ च तत्प्रणेतुः सूक्ष्मान्तरितदूरानन्तार्थसाक्षात्कार्यतीन्द्रियज्ञानसम्पत्समन्वितस्य कथं न सिद्धिः ? [ धर्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञान की सिद्धि ] यदि यह शंका की जाय-ग्रहोपरागादि में तत्प्रतिपादक वचनविशेष संवादी होने से उस वचन विशेष हेतु से अपने कारणीभूत साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व की सिद्धि मानी जा सकती है / किन्तु धर्मादि पदार्थ प्रतिपादक वचनविशेष में संवाद की उपलब्धि न होने से धर्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व की सिद्धि उसमें कैसे मानी जाय ?-यह शंका अनुचित है क्योंकि धर्मादिपदार्थप्रतिपादक वचन विशेष में भी संवाद उपलब्ध है, जैसे-ज्योतिषशास्त्र से चन्द्र-सूर्यग्रहणादि की अमुकविशिष्टवर्ण--अमुकप्रमाण अमुक दिशाविभागादिविशिष्टरूप में प्रतिपत्ति जिस विद्वान् को होती है उस विद्वान् को अमुकदेशनिवासी अमुक अमुक जीवगण को अमक निश्चित काल में अमक ही प्रकार का कर्मफल मिलने की सूचना भी उसी ज्योतिषशास्त्र से प्राप्त होती है। जैसे कि कहा है - “पूर्वजन्म में किये हुए सकल शुभाशुभ कर्म को प्रकाशित करने वाला नक्षत्र और ग्रहों का समुदाय लोगों के कर्म से प्रेरित होकर दिन-रात भ्रमण करता है।" इससे यह सिद्ध होता है कि ज्योतिष शास्त्र जैसे ग्रहोपरामादि को प्रकाशित करता है उसी प्रकार प्रमाणान्तर से संवादी ऐसे शुभाशुभ धर्माधर्मादि को भी प्रकाशित करता ही है। तो अब धर्माधर्मादिप्रकाशक ज्योतिषशास्त्रीय वचनविशेष में भी पूर्वोक्त रीति से धमधिर्मसाक्षात्कारिज्ञानजन्यत्व निर्बाध सिद्ध होता है / जब धर्माधर्मसाक्षात्कारिज्ञान सिद्ध होता है तो सकल पदार्थसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व की सिद्धि भी सरलता से हो जाती है। कारण, 'धर्म सुख का कारण और अधर्म दुःख का कारण है' इत्यादि का साक्षात्कार तभी संभव है जब उनके सहकारिकारणभूत सब पदार्थ एवं धर्माधर्म के आश्रयभूत (यानी उसके फलभोग करने वाले) सकलजीवसमूह का भी साक्षात्कार किया जाय / पहले ‘एको भावः'... इत्यादि से यह कहा जा चुका है कि सभी पदार्थ अन्योन्यसंबद्ध होने के कारण किसी एक धर्मादि पदार्थ के सभी गुण-धर्मों की प्रतीति तभी हो सकेगी जब सर्व पदार्थ की साक्षात् प्रतीति की जाय। निष्कर्ष यह है कि अब वचनविशेषरूप हेतु में सर्वपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानजन्यत्व की सिद्धि निर्बाध है / जब अतिशयित ज्ञान जन्य वचनविशेष सिद्ध हुआ तो उन वचनविशेष यानी आगमों के प्रणेतारूप में सूक्ष्म, अन्तरित, दूरवर्ती अनन्त पदार्थों को साक्षात् करने वाली ज्ञानसंपदा से अलंकृत सर्वज्ञ भगवान् को सिद्धि क्यों नहीं होगी?