________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 273 नाप्येतद् वक्तव्यम्-साध्योक्ति-तदावृत्तिवचनयोरनभिधानाद न्यूनता नामात्र साधनदोषः, प्रतिज्ञावचनेन प्रयोजनाभावात् / अथ विषयनिर्देशार्थ प्रतिज्ञावचनम् / ननु स एव किमर्थः ? साधर्म्यवत्प्रयोगादिप्रतिपत्त्यर्थः / तथाहि असति साध्यनिर्देशे 'यो वचनविशेषः स साक्षाकास्मिानपूर्वकः' इत्युक्ते किमयं *साधर्म्यवान प्रयोग उत वैधर्म्यवानिति न ज्ञायेत / उभयं ह्यात्राशंक्येत-वचन विशेषत्वेन साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वे साध्ये साधर्म्यवान , असाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वेन वचनाऽविशेषत्वे साध्ये वैधर्म्यवानिति / हेतु-विरुद्ध-प्रनकान्तिकप्रतीतिश्च न स्यात् / प्रतिज्ञापूर्वके तु प्रयोगे शब्दविशेष: साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकः, शब्दविशेषत्वाद् इति हेतुभावः प्रतीयते, असाक्षास्कारिज्ञानपूर्वको वचनविशेषत्वाद इति विरुद्धता, चक्षुरादिकरणजनितज्ञानपूर्वको वचनविशेषत्वादि... त्यनैकान्तिकत्वम् / हेतोश्च त्रैरूप्यं न गम्येत, तस्य साध्यापेक्षया व्यवस्थितेः / सति प्रतिज्ञानिर्देशेऽवयवे समुदायोपचारात् साध्यधर्मी इति 'पक्षः' इति, तत्र प्रवृत्तस्य वचनविशेषत्वस्य पक्षधर्मत्वम् , साध्यधर्मसामान्येन समानोऽर्थः सपक्ष इति तत्र वर्तमानस्य सपक्षे सत्त्वम् , न सपक्षोऽसपक्ष इत्यसपक्षेऽप्यसत्त्वं प्रतीयते। [प्रतिज्ञा-निगमनवाक्य प्रयोग की आवश्यकता क्यों ? ] .. यह मत बोलना कि 'साध्यनिर्देश और तदावृत्ति यानी उसकी पुनरावृत्ति करने वाला निगमन का वचन, इन दोनों का प्रतिपादन आपने सर्वज्ञ साधक अनुमान में किया नहीं है अतः न्यूनता यानी अपूर्णता दोष से आपका हेतु दूषित है।'-ऐसा बोलने का निषेध इसलिये करते हैं कि प्रतिज्ञा वाक्य के प्रतिपादन का कोई प्रयोजन नहीं है / ___ शंका:-विषय यानी साध्य के स्पष्ट निर्देश के लिये ( अर्थात् प्रतिवादी को स्पष्टतया साध्य बोधनार्थ) प्रतिज्ञा वाक्य आवश्यक है। . उत्तर-में यह प्रति प्रश्न है कि साध्यनिर्देश की भी वया जरूर है ? यदि यहाँ ऐसा कहा जाय- साधर्म्यवत् आदि के स्पष्ट भान के लिये उसकी जरूर है / तात्पर्य यह है कि साध्यनिर्देश पृथक न करके केवल इतना ही कहा जाय "जो वचनविशेष होता है वह साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक होता है" तो यह प्रयोग साधर्म्यवान् यानी व्यापक की सिद्धि के लिये किया गया है, या वैधर्म्यवान् यानी व्याप्याभाव की सिद्धि के लिये किया गया है, इसका पता नहीं चलेगा। कारण, यहाँ दोनों की संभावना हो सकती है-वंचनविशेषत्व रूप व्याप्य से साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व रूप व्यापक को साध्य करने पर साधर्म्यवान् प्रयोग संभवित है और व्यापक के व्यतिरेक यानी साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व के व्यतिरेक से वचन विशेषत्वरूप व्याप्य के अभाव को साध्य करने पर वैधर्म्यवान् प्रयोग संभवित है। प्रतिज्ञावाक्य के विना इन दोनों में से कौन साध्य अभिप्रेत है यह नहीं जाना जा सकता / दूसरी बात, इसमें यह हेतु है, अथवा (संभवतः) यह हेत विरुद्ध है अथवा (संभवतः) यह हेत अनैकान्तिक है-ऐसी प्रतीति नहीं होगी यदि प्रतिज्ञावचन नहीं कहा जायेगा। प्रतिज्ञावाक्य प्रयोग करने पर, यह प्रतीतियाँ हो सकेगी-जैसे, यह *परार्थानुमान के दो भेद धर्मकीत्तिकृत न्यायबिंदु में उपलब्ध है यथा-'साधर्म्यवद् वैधर्म्यवच्चेति' [ 3-5 ]