________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 279 तैनिश्चिता इति सिद्धाः, ते च 'अर्यन्ते' इति 'अर्थाः' उच्यन्ते / तेषां शासनं प्रतिपादकमर्हच्छासनमेव न बुद्धादिशासनम् / अतो वचनविशेषत्वलक्षणस्य हेतोस्तेष्वसिद्धत्वात् कुतस्तेषामपि सर्वज्ञत्वं येन विशेषसर्वज्ञत्वसिद्धिर्न स्यात् ? यथा चागमान्तरेण प्रत्यक्षादिविषयत्वेन प्रतिपादितानामर्थानां तद्विषयत्वं न संभवति तथाऽत्रैव यथास्थानं प्रतिपादयिष्यते। . अथवा 'सिद्धार्थानाम्' इत्यनेन हेतुसंसूचनं विहितमाचार्येण, सिद्धाः प्रमाणान्तरसंवादतो निश्चिताः येऽर्था नष्ट-मुष्ट्यादयः तेषां शासन-प्रतिपादकं यतो द्वादशांगं प्रवचनमतो जिनानां कार्यत्वेन संबंधि / तेनायं प्रयोगार्थः सचितः, प्रयोगश्च प्रमाणान्तरसंवादियथोक्तनष्ट-मुष्टयादिसूक्ष्मान्तरितद्रार्थप्रतिपादकत्वान्यथाऽनुपपत्तेजिनप्रणीतं शासनम् / अत्र च सूक्ष्माद्यर्थप्रतिपादकत्वाऽन्यथानुपपत्तिलक्षणस्य हेतोजिनप्रणीतत्वलक्षणेन स्वसाध्येन व्याप्तिः साध्यमिण्येव निश्चितेति तन्निश्चायकप्रमारणविषयस्येह दृष्टान्तस्य प्रदर्शनमाचार्येण न विहितम् , तदर्थस्य तद्व्यतिरेकेणैव सिद्धत्वात् / यथा चार्थापत्तेः साध्यमिण्येव व्याप्तिनिश्चयाद् दृष्टान्तव्यतिरेकेणाऽपि तदुत्थापकादर्थादुपजायमानायाः सर्वज्ञप्रतिक्षेपवादिभिर्मीमांसकः प्रामाण्यमभ्यपगम्यते तथा प्रकतादन्यथानपपत्तिल क्षणाद्धेतोरुपजायमानस्याऽस्याऽनुमानस्य तत् किं नेष्यते ? प्रतिपादितश्चार्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भाव: प्रागिति भवत्यतो हेतोः प्रकृतसाध्यसिद्धिः / अत एव पूर्वाचाहंतुलक्षणप्रणेतृभिरेकलक्षणो हेतुः, 'सिद्धार्थानाम्' इस का तात्पर्य यह है-सिद्ध यानी निश्चित, अर्थात् शासन के द्वारा जो प्रत्यक्षअनुमानादि प्रमाण के विषयरूप में प्रतिपादित किये गये हैं, उन प्रमाण के विषयरूप में ही वे निश्चित किये जाने से सिद्ध कहलाते हैं / अर्थ शब्द 'ऋ' धातु से कर्म में थ प्रत्यय से बना है-'अर्यन्ते' यानी जो जाने जाते हैं वे 'अर्थ' / सिद्ध हैं ऐसे जो अर्थ, उन्हें (कर्मधारय समास होने से) सिद्धार्थ कहते हैं। सिद्ध अर्थों का शासन और कोई बुद्धादि का नहीं नहीं है किन्तु अर्हत् भगवान् का ही है / कहने का उद्देश यह है कि वचनविशेषत्वरूप हेतु बुद्धादि वचन में असिद्ध है तो फिर बुद्धादि सर्वज्ञ कैसे सिद्ध होंगे जिस से आप कहते हैं कि अर्हत् भगवान् की विशेषतः सर्वज्ञतया सिद्धि नहीं हो सकती ? अन्य बुद्धादि आगम में प्रत्यक्षादिप्रमाण के विषयरूप में प्रतिपादित जो पदार्थ हैं उनमें वस्तुत: प्रत्यक्षादिप्रमाण विषयता का संभव नहीं है यह इसी प्रकरण में उचित अवसर पर दिखाया जायेगा। [वचनविशेषत्व हेतु से सर्वज्ञविशेष की सिद्धि ] अथवा 'सिद्धार्थानाम्' इस अवयव से सूरिराज ने हेतु का सूचन किया है / सिद्ध यानी प्रमाणान्तर से सुनिश्चित जो अर्थ नष्ट-मुष्टि आदि, उनका शासन यानी उनका प्रतिपादन करने वाला बारह अंगरूप प्रवचन, वह कार्यत्वरूप संबंध से जिनों का ही है / यह प्रयोग का अर्थकथन है-इससे यह प्रयोग निर्गलित होता है- "शासन यह जिनरचित है (यानी बुद्धादि रचित नहीं है,) क्योंकि प्रमाणान्तरसंवादि नष्ट-मुष्टि आदि पूर्वोक्त सूक्ष्म-अन्तरित-दूरवर्ती पदार्थों की ज्ञापकता अन्यथा अनुपपन्न है।" इस प्रयोग में सूक्ष्माद्यर्थप्रतिपादकत्व की अन्यथाऽनुपंपत्तिरूप हेतु को जिनप्रणीतत्वरूप साध्य के साथ व्याप्ति साध्यधर्मी यानी पक्ष में ही सुनिश्चित है अतः उसके निश्चायक प्रमाण के विषयरूप में दृष्टान्त का उपन्यास जरूरी नहीं है अत एव आचार्यजीने भी उसका प्रदर्शन नहीं किया है। कारण, दृष्टान्त का प्रयोजन उसके विना ही सिद्ध है।