________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञसिद्धिः 269 मुत्पद्यते तत् सम्यगवगततदर्थवचनोद्भवाद् विलक्षणमेव / यथा च विशिष्टसामग्रीप्रभवस्य प्रत्यक्षस्य न क्वचिद् व्यभिचारः इति तस्याऽविसंवादित्वं तथावगतसम्यगर्थवचनोद्भवस्यापि नष्ट-मुष्टयादिविषयविज्ञानस्येति सिद्धमत्राऽविसंवादित्वलक्षणं विशेषणं प्रकृतहेतोः / नायलिंगपूर्वकत्वं विशेषणमसिद्धम् , नष्ट-मुष्ट्यादीनामस्मदादीन्द्रियाऽविषयत्वेन तल्लिगत्वेनाभिमतस्याप्यर्थस्यास्मदाद्यक्षाऽविषयत्वान्न तत्प्रतिपत्तिः, प्रतिपत्तौ वाऽस्मदादीनामपि तल्लिगदर्शनाद् वचनविशेषमन्तरेणाऽपि ग्रहोपरागादिप्रतिपत्तिः स्यात् / न हि साध्यव्याप्तलिंगनिश्चयेऽग्न्यादिप्रतिपत्तौ वचन विशेषापेक्षा दृष्टा, न भवति चास्मदादीनां वचनविशेषमन्तरेण कदाचनाऽपि प्रतिनियतदिक्प्रमाण-फलाद्यविनाभूत ग्रहोपरागादिप्रतिपत्तिरिति तथाभूतवचनप्रणेतुरतीन्द्रियार्थविषयं ज्ञानमलिंगमभ्युपगन्तव्यमियलिंगपूर्वकत्वमपि विशेषणं प्रकृतहेतो सिद्धम् / नाप्ययमुपदेशपरम्परयाऽतीन्द्रियार्थदर्शनाऽभावेऽपि प्रमाणभूतः प्रबन्धेनानुवर्तत इत्यनुपदेशपूर्वकत्वविशेषणाऽसिद्धिरिति वक्तुं युक्तम्, उपदेशपरम्पराप्रभवत्वे नष्ट-मुष्ट्यादिप्रतिपादकवचनविशेषस्य वक्तुरज्ञान-दुष्टाभिप्राय वचनाकौशलदोषैः श्रोतुर्वा मन्दबुद्धित्व- विपर्यस्तबुद्धित्व-गृहीतविस्मरणैः प्रतिपुरुषं हीयमानस्यानादौ काले मूलतचिरोच्छेद एव स्यात् / तथाहि -इदानीमपि केचिद् __ . [ प्रत्यक्ष और वचनविशेष में अविसंवाद का साम्य ] यदि यह कहा जाय-संपूर्णसामग्रीजन्य प्रत्यक्ष और अपूर्णसामग्रीजन्य प्रत्यक्ष दोनों अन्योन्यविलक्षण ही है, अतः सभी प्रत्यक्ष को असत्य मानना नहीं पड़ेगा-तो यह बात वचनविशेष में भी समान ही है, जैसे-जिस वचन का वास्तव अर्थ अज्ञात है उस वचन से जो नष्ट-मुष्टि आदि विषयक विसंवादी ज्ञान उत्पन्न होता है, तथा जिसका वास्तव अर्थ ज्ञात है ऐसे वचन से जो नष्ट-मुष्टि आदि विषयक ज्ञान उत्पन्न होता है ये दोनों अन्योन्य विलक्षण होने से सभी वचन विशेष में असत्यता की आपत्ति नहीं है / जिस रीति से, विशिष्ट-परिपूर्णसामग्रीजन्य प्रत्यक्ष का कभी विषय के साथ व्यभिचार न होने से उसको अविसंवादी माना जाता है, उसी प्रकार जिसका वास्तव अर्थ समझने में आ गया है ऐसे वचन से उत्पन्न नष्ट-मुष्टि आदि विषयक विज्ञान भी व्यभिचार न होने से अविसंवादी माने जायेंगे, तो इस प्रकार वचनविशेषहेतु का अविसंवादिता विशेषण सार्थक सिद्ध होता है। [ अलिंगपूर्वकत्व विशेषण की सार्थकता ] वचन विशेष में जो अलिंगपूर्वकत्व विशेषण लगाया है वह असिद्ध नहीं है / नष्ट-मुष्टि आदि वस्तुएं हम लोगों के लिये इन्द्रियगोचर नहीं है, अत एव कोई भी अर्थ उसका लिंग मान लिया जाय, वह भी हम लोगों के लिये इन्द्रियगोचर न होने से हम लोगों को उसका भान नहीं होगा। यदि भान होता तब तो उस लिंग को देख कर ही आगमवचन के विना भी हम लोगों को सूर्य-चन्द्रग्रहणादि का भान हो जाता जैसे कि, जब साध्य का अविनाभावि धूम लिंग का निर्णय होता है तो अग्नि आदि के बोध में वचन विशेष की अपेक्षा नहीं रह जाती। किन्त यह तो सनिश्चित है-आगम वचन के विना हम लोगों को कभी भी अमुक सुनिश्चित दिशा में, अमुक प्रमाण में, अमुक फल का अविनाभावि सूर्य-चन्द्रग्रहण होगा ऐसा भान नहीं होता / अतः ऐसे आगमवचन के प्रणेता का अतीन्द्रिय अर्थ विषयक ज्ञान, विना लिंग के उत्पन्न होता है यह मानना पड़ेगा। अतः अलिंगपूर्वकत्व ऐसा प्रकृत हेतु का विशेषण असिद्ध नहीं है /