________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 255 श्रितं=उत्पाद्यत्वेन तं प्रतिगतं-इति प्रत्यक्षमिति व्युत्पत्तेः / अभ्युपगमवादेन चाभ्यासवशात् प्राप्तप्रकर्षण ज्ञानेन सर्वज्ञ इति प्रतिपादितम् / न त्वस्माकमयमभ्युपगमः, किंत ज्ञानाद्यावरकघातिकर्मचतुष्टयक्षयोद्भूताशेषज्ञेयव्याप्यनिन्द्रियशब्दलिंगसाक्षात्कारिज्ञानवतः सर्वज्ञत्वमभ्युपगम्यते / ___ यच्चोक्तम्-यद्यतोतानागतवर्तमानाशेषपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानेन सर्वज्ञस्तदा क्रमेणातीतानागतपदार्थवेदने पदार्थानामानन्त्याद न ज्ञानपरिसमाप्तिः इति-तदयुक्तम् , तथानभ्युपगमात्, शास्त्राथ कमेणानुभूतेऽप्यत्यन्ताभ्यासान क्रमेण संवेदनमनुभयते तद्वदत्रापि स्यात् / यदप्यभ्यधायि-अथ युगपत्सर्वपदार्थवेदकं तज्ज्ञानमभ्युपगभ्यते तदा परस्परविरुद्धानां शीतोष्णादीनामेकज्ञाने प्रतिभासाऽसंभवात् संभवेऽपि........इत्यादि-तदप्ययुक्तम् / यतः परस्परविरुद्धानां किमेकदाऽसंभवः, किंवा संभवेऽप्येकज्ञानऽप्रतिभासनं भवता प्रतिपादयितमभिप्रेतम? तत्र यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः, जलाऽनलादीनां छायाऽऽत. पादोनां चैकदा विरुद्वानामपि संभवात / अथैका विरुद्धानामसंभवः तदाऽसंभवादेव नैकत्र ज्ञाने तेषा प्रतिभासो न पुनविरुद्धत्वात् / विरुद्धानामपि तेषामेकज्ञाने प्रतिभाससंवेदनात् / [ व्युत्पत्तिनिमित्त की सर्वज्ञ प्रत्यक्ष में उपपत्ति ] ___अथवा जो व्युत्पत्तिनिमित्त है-वही प्रत्यक्षशब्द की प्रवृत्ति का निमित्त होने दो, फिर भी सर्वज्ञज्ञान में प्रत्यक्ष शब्द के प्रयोग की योग्यता का अभाव होने की आपत्ति नहीं है / जैसे-'अक्ष' शब्द में 'अश्' मूल धातु है जिसका अर्थ यह है-व्याप्त होना, 'सभी पदार्थों में ज्ञानात्मकरूप से जो व्याप्त हो जाता है' इस व्यूत्पत्तिवाले अक्ष शब्द का आश्रय करने पर 'अक्ष' शब्दार्थ हुआ आत्मा। अक्ष का आश्रित, यानी अक्ष से उत्पन्न होने के कारण अक्ष को प्रतिगत यानी सम्बद्ध हो उसी का नाम प्रति+अक्ष=प्रत्यक्ष / इस व्युत्पत्ति के आधार पर सर्वज्ञज्ञान भी प्रत्यक्षशब्द योग्य है क्योंकि सर्वज्ञ का ज्ञान सर्वज्ञ आत्मा को प्रतिगत होता है, और सर्वज्ञ आत्मा अपने ज्ञान से सारे जगत् में व्याप्त हो जाता है। यह अवश्य ध्यान देने योग्य है कि अभ्यास के माध्यम से प्रकर्षप्राप्त ज्ञान द्वारा सर्वज्ञ का जो प्रतिपादन किया है उसमें हमारा स्वरस नहीं है किन्तु केवल अभ्युपगमवाद यानी एक बार मान कर चलना इस नीति से किया है। हमारा ऐसा मत नहीं है किन्तु हमारा मत यह है-ज्ञानादिगुण के आवारक धाती कर्म (ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीय-अंतराय ये चार कम) क्षाण पर सकल ज्ञेय वस्तु का व्यापक तथा इन्द्रिय, लिंग एवं शब्द से निरपेक्ष साक्षात्कार स्वरूप ज्ञान जिसको होता है वही सर्वज्ञ है। [अनंतपदार्थ होने पर भी सर्वज्ञता की उपपत्ति ] यह जो कहा गया है-[ 10 213-6 ] अतीत-अनागत-वर्तमान सकल पदार्थ के साक्षात्कारी ज्ञान से अगर किसी को सर्वज्ञ माना जायेगा तो पदार्थ अनंत होने के कारण क्रमशः एक एक अतीतअनागत पदार्थ के वेदन में ज्ञान सदा संलग्न रहेगा तो कभी अन्त ही नहीं आयेगा....इत्यादि-वह कथन अयुक्त है क्योंकि हम सकल पदार्थ का एक साथ ही संवेदन मानते हैं, क्रमशः एक एक पदार्थ का वेदन नहीं मानते हैं / जैसे अभ्यासकाल में क्रमशः शास्त्र के एक एक पदार्थ का अवधारण किया जाता है किन्तु जब अति अभ्यास हो जाता है तब उन सब शास्त्रार्थ का एक साथ ही स्मरण आदि होता है यह अनुभव सिद्ध है उसी प्रकार सर्वज्ञज्ञान में भी एक साथ सकल पदार्थ का प्रतिभास संभव है।