________________ 234 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ ___ एतेन "यदि षभिः प्रमाणैः स्यात् सर्वज्ञः" [ श्लो० 2-199 ] इत्यादि वात्तिककृत्प्रतिपादितं प्रसंगसाधनाभिप्रायेण युक्तिजालमखिलं निरस्तम् , व्याप्तिप्रतिषेधस्य पूर्वोक्तप्रकारेण विहितत्वात् / यच्च-"कि प्रमाणान्तरसंवाद्यर्थस्य वक्तृत्वात्....इत्यादि तद् धूमादग्न्यनुमानेऽपि समानम् / तथाहि-अत्रापि वक्तुं शक्यम्-'कि साध्यमिसंबन्धी धूमो हेतुत्वेनोपन्यस्त' इत्यादि यावत् 'सिद्धः प्रतिबन्धोऽसर्वज्ञत्ववक्तृत्वयोरग्नि-धमयोरिव" इति पर्यन्तम् तदप्ययुक्तम्, यतोऽसर्वज्ञत्व-वक्तृत्वयोरिव नाग्निधूमयोः कार्यकारणत्वप्रतिबन्धस्य तद्ग्राहकप्रमाणस्य वाऽभावः / नहि वह्नि सद्भावे धूमो दृष्टः, तदभावे च न दृष्टः इत्येतावता धूमस्याग्निकार्यत्वमुच्यते किन्तु "कार्य धूमो हुतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितः" [ प्र० वा० 3-34 पूर्वार्द्ध ] न चासो दर्शनाऽदर्शनमात्रगम्यः किन्तु विशिष्टात् प्रत्यक्षाऽनुपलम्भाख्यात् प्रमाणात् / प्रत्यक्षमेव प्रमाणं प्रत्यक्षानुपलम्भशब्दाभिधेयम् , तदेव कार्यकारणाभिमतपदार्थविषयं प्रत्यक्षम्, तद्विविक्तान्यवस्तुविषयमनपलम्भशब्दाभिधेयम / कदाचिदनपलम्भपर्वक प्रत्यक्षं तदभावसाधकम. कदाचित प्रद पक्षपुर:सरोऽनुपलम्भः / तत्राद्येन येषां कारणाभिमतानां सन्निधानात् प्रागनुपलब्धं सद् धूमादि तत्सन्निधानादुपलभ्यते तस्य तत्कार्यता व्यवस्थाप्यते / तथाहि-एतावद्भिः प्रकारधू मोऽग्निजन्यो न स्यात्-१. यद्यग्निसन्निधानात् प्रागपि तत्र देशे स्यात् , 2. अन्यतो वाऽऽगच्छेत् , 3. तदन्यहेतुको वा भवेत्-तदेतत् सर्वमनुपलम्भपुरस्सरेण प्रत्यक्षेण निरस्तम् / भी असिद्ध है / अतः प्रसंगसाधन और विपर्ययप्रदर्शन की प्रवृत्ति सर्वज्ञ के विषय में असंभव होने से सर्वज्ञ का विरोध भी मूलविहीन है। [ धूमहेतुकानुमानोच्छेद प्रतिबन्दी का प्रतिकार ] . जब उक्त रीति से अलौकिक ज्ञान वाले नेत्र की संभावना निष्कंटक है तब वात्तिककार ने जो यह 'छह प्रमाणों के समूह से कदाचित कोई सर्वज्ञ हो सकता है' इत्यादि प्रसंगसाधन के अभिप्राय से समस्त युक्तिवृद प्रस्तुत किया है वह धराशायी हो जाता है / कारण, सर्वज्ञत्व और वक्तृत्व का व्याप्यव्यापकभाव का पूर्वोक्त रीति से निराकरण कर दिया है। तदनंतर जो आपने वक्तृत्व हेतु के खंडन की धूमहेतुकअनुमानखंडन में समानता दिखाते हुए यह कहा था - "सर्वज्ञवादी यदि 'प्रमाणान्तरसंवादीअर्थवक्तृत्व यह हेतु है'-इत्यादि विकल्प ऊटा कर यदि वक्तृत्वहेतु का खंडन करना चाहे तो वह धूमहेतुक अग्निअनुमान में भी समान है, जैसे कि यहाँ कहा जा सकता है कि साध्यमि का सम्बन्धीभूत धूम का हेतुरूप में उपन्यास करते हैं? या....इत्यादि से लगाकर असर्वज्ञत्व और वक्तृत्व की व्याप्ति इस प्रकार अग्नि और धूम की व्याप्ति की तरह सिद्ध होती है....इत्यादि तक....जो प्रतिवादी ने सर्वज्ञविरोध में कहा था"-वह सब अयुक्त है। तात्पर्य यह है कि मीमांसक असर्वज्ञत्व-वक्तृत्व की बात और अग्नि-धूम की बात, इन दो में जो समानता दिखाना चाहते हैं वह इसलिये ठीक नहीं है कि असर्वज्ञत्व और वक्तृत्व के कार्यकारणभाव सम्बन्ध और उसके ग्राहक प्रमाण का जैसे अभाव है वैसे अग्नि-धूम के कार्य-कारणभावसम्बन्ध और तद्ग्राहक प्रमाण का अभाव नहीं है / अग्नि होने पर धूम दिखाई देता है और न होने पर नहीं दिखाई देता इतने मात्र से कहाँ हम धूम को अग्नि का कार्य बताते हैं ? हम तो धूम को अग्नि का कार्य इसलिये कहते हैं कि अग्निजन्य कार्य के जो धर्म होते हैं अन्वयव्यतिरेकानुविधायितादि, धूम उसका अनुवर्तन करता है।