________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद 75 यच्चोक्त-[पृ. 30-2] कि संवादज्ञानं साधनज्ञानविषयं तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयति उत भिन्नविषयं'-इत्यादि, तदप्यविदितपराभिप्रायस्याभिधानम् , न हि संवादज्ञानं तद्ग्राहकत्वेन तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयति किंतु तत्कार्यविशेषत्वेन, यथा धूमोऽग्निमिति पराभ्युपगमः / ___यच्च संवादज्ञानात्साधनज्ञानप्रामाण्यनिश्चये चक्रकदूषणमभ्यधायि, [पृ. २२-१]-तदप्यसंगतम् / यदि हि प्रथममेव संवादज्ञानात् साधनज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्तेत तदा स्यादेतद् दूषणम् , यदा तु वह्निरूपदर्शने सत्येकदा शीतपीडितोऽन्यार्थं तद्देशमुपसर्पस्तत्स्पर्शमनुभवति, कृपालुना वा केनचित्तद्देश वह रानयने, तदाऽसौ वह्निरूपदर्शन-स्पर्शनज्ञानयोः सम्बन्धमवगच्छति-एवंस्वरूपो भावः एवम्भूतप्रयोजननिर्वर्तक इति,-सोऽवगतसम्बन्धोऽन्यदाऽनभ्यासदशायामनुमानात् ममाऽयं रूपप्रतिभासा5भिमताऽर्थक्रियासाधनः, एवंरूपप्रतिभासत्वात , पूर्वोत्पन्नवंरूपप्रतिभासवत्-इत्यस्मात्साधननि सिज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्तते इति कुतश्चक्रकचोद्यावतारः ? ! विशेष की ध्वनि है-वीणा की या मृदंग की ?' ऐसी शंका पड़ने पर वहां जाकर वाद्य को देखना पड़ता है और देखकर 'यह वीणा है' ऐसा उसके रूप-रंग विशेष से निर्णय करना पड़ता है, यह निर्णय होने पर शंका निवृत्त हो जाने से पूर्व ध्वनि ज्ञान वीणासंबंधी होने के प्रामाण्य का निश्चय होता है, यहाँ संवादक वीणा का रूपदर्शन हआ। इसलिए कह सकते हैं कि कभी भिन्न विषयक संवाद से भी प्रामाण्य निर्णय सिद्ध होता है। तथा. यह जो कहा गया कि क्या संवादक ज्ञान जो साधन ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक होता है वह क्या साधन ज्ञान के ही विषय को लेकर प्रवृत्त होता है या इससे भिन्न विषय को लेकर" इत्यादि-यह कथन भी सामने वालों का अभिप्राय विना समझे ही किया गया है, क्योंकि सामने वाले का अभिप्राय यह नहीं कि संवादक ज्ञान पूर्व ज्ञान के विषय का ग्राहक है इसलिए उसका प्रामाण्य निश्चित करता है / ऐसा हो तब तो प्रश्न हो सकता है कि संवादक ज्ञान पूर्वज्ञान के विषय को विषय करने वाला होता है ? या इससे भिन्न विषय का होता हआ उसके प्रामाण्य का निश्चायक है ?-किन्तु यह बात नहीं है। पर का अभिप्राय यह है कि संवादकज्ञान पूर्वज्ञान का कार्यविशेष होने से उसका प्रामाण्य निश्चित कराता है। जैसे अग्नि के बाद में उत्पन्न होने वाला धूम अग्नि का कार्यविशेष होने से वह अग्नि का निर्णय कराता है / तथा, जो संवादज्ञान से साधन ज्ञान के प्रामाण्य का निर्णय करने में चक्रक दृषण दिया गया था वह भी असङ्गत है / क्योंकि पहले से ही यदि संवाद ज्ञान से साधन ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय करके ही मनुष्य प्रति करता हो तब तो यह दूषण लगता। क्योंकि पहले संवाद ज्ञान, बाद में प्रामाण्य ज्ञान, बाद में प्रवृत्ति और प्रवृत्ति से वस्तु का संवाद ज्ञान....इस प्रकार चक्रक लगता / किन्तु ऐसी स्थिति नहीं है / उदाहरणार्थ, कोई शीत से पीडित नर, जिसने पहले अग्निरूप को देखा है वह अग्नि से भिन्न किसी अन्य प्रयोजन से जंगल में गया, वहाँ आग का दर्शन होता है, एवं निकट जाने पर आग की गरमी का स्पर्शानभव भी होता है अथवा किसी कृपाल सज्जन के द्वारा उसी देश में आग लाने पर अग्नि के रूपदर्शन के साथ गरमी का स्पार्शन ज्ञान होता है, तब इन दोनों के बीच के संबंध का ज्ञान होता है कि इस प्रकार का रूप वाला पदार्थ इस प्रकार के शीतापनयनादि प्रयोजन का साधक है।