________________ प्रथमखण्ड-का० १-वेदापौरुषेय० 179 यदप्युक्तम्-'तदर्थानुष्ठानसमयेऽवश्यंतया त्रैवर्णिकानामनिश्चिततत्प्रामाण्यानामप्रवृत्तिप्रसंगाव सति कर्तरि तत्स्मरणं स्यात् न चाभियुक्तानामपि तदस्ति' इति, तदागमान्तरेऽपि समानं नवेति चिन्त्यतां स्वयमेव / न चायं नियमः-अनुष्ठातारोऽभिप्रेतार्थानुष्ठानसमये तत्कर्तारमनुस्मृत्यैव प्रवर्त्तन्ते, नहि पाणिन्यादिप्रणीतव्याकरणप्रतिपादितशाब्दव्यवहारानुष्ठानसमये तदनुष्ठातारोऽवश्यंतया व्याकरणप्रणेतारं पाणिन्यादिकमनुस्मत्यैव प्रवर्तन्ते इति दृष्टम् , निश्चिततत्समयानां कर्तृ स्मरणव्यतिरेकेणाऽप्यविलम्बेन 'भवति' आदिसाधुशब्दोच्चारणदर्शनात् / तत् स्थितमेतत्-सविशेषणस्यापि 'अस्मर्यमाणकर्तकत्वात्' इति हेतोर्वादिसंबन्धिनोऽनैकान्तिकत्वम्. प्रतिवादिसम्बन्धिनोऽसिद्धत्वम् , सर्वसम्बन्धिनोऽपि तदेवेति नाऽस्माद्ध तोरपौरुषेयत्वसिद्धिः। अतोऽपौरुषेयत्वप्रसाधकप्रमाणाभावाच्छाशनस्याऽपौरुषेयत्वाऽसम्भवे यदि सर्वज्ञप्रणीतत्वं नाभ्युपगम्यते तदा प्रामाण्यमपि न स्यात; तथा च 'धर्म प्रेरणा प्रमाणमेव' इत्ययोगव्यवच्छेदेनावधारणमनुपपन्नम्। अथ प्रेरणाप्रामाण्यसिद्धयर्थं सर्वज्ञः प्रेरणाप्रणेताऽभ्युपगम्यते तदा "चोदनैव च भूतम् , भवन्तम् , जाय ? कदाचित् मान लिया जाय कि विरोध सिद्ध है, तो पौरुषेयत्व के विरोधी स्मरणयोग्यत्व को ही हेतु कर देने से वेद में पौरुषेयत्व का अभाव सिद्ध हो जायगा फिर 'अस्मर्यमाणकर्तृ कत्व' विशेप्यपद का हेतु में लगाना व्यर्थ ही होगा। [ मुख्य बात तो यह है कि कर्तृ स्मरणयोग्यत्व का पौरुषेयत्व के साथ कुछ भी विरोध ही नहीं है / ऐदंयुगीन पौरुषेयभावों में पौरुषेयत्व और कर्तृ-स्मरणयोग्यत्व का सहावस्थान देखा जाता है, इस लिये दो में से एक भी प्रकार के विरोध की संभावना नहीं है। ] [कर्ता के स्मरणपूर्वक ही प्रवृत्ति होने का नियम नहीं है ] आपने जो यह कहा था-'वेद का यदि कोई कर्ता होता तो ब्राह्मणादि तीनों वर्ण के लोक वेदोक्त अर्थ के अनुष्ठान काल में उसका स्मरण अवश्य करते कि उसके विना प्रामाण्य अनिश्चित रह जाने से उन अनुष्ठानों में वे प्रवृत्ति ही नहीं करते। किंतु कर्ता के स्मरण विना भी अभियुक्त यानी प्रामाणिक विश्वसनीय लोग प्रवृत्ति करते हैं इसलिये वेद का कोई कर्ता नहीं है'-इत्यादि इस बात के ऊपर तो आप खुद ही सोच लिजी ये कि अन्य बौद्धादि आगम के विषय में भी इसी युक्ति का तुल्परूप से प्रयोग हो सकता है या नहीं ? तात्पर्य यह है कि उपरोक्त युक्ति अन्य आगम में भी तुल्यरूपेण लागू होने से वह अन्य आगम मे भी अपौरुषेय मानने की आपत्ति आयेगी। दूसरे, यह नियम भी नहीं है कि-'वाँछित अर्थ के अनुष्ठान काल में उसके कर्ता का अनुस्मरण करके ही अनुष्ठाता लोग प्रवृत्ति करे' / ऐसा कहीं देखा नहीं है कि पाणिनी आदि विरचित व्याकरण से उपदिष्ट शाब्दिक व्यवहार का जब जब पालन किया जाता है तब वे व्यवहारकर्ता पहले नियमतः पाणिनी आदि व्याकरण रचयिताओं का स्मरण करे ही, और बाद में उस व्यवहार में प्रवत्ति करें। यह तो स्पष्ट दिखाई देता है कि 'भवति' आदि शब्दों का पाणिनी आदि रचित व्याकरण की सहायता से जिसने समय-संकेत निश्चित कर लिया है वह पाणिनी आदि कर्ता का स्मरण किये विना ही, देर लगाये विना ही 'भवति' आदि शुद्ध शब्दोच्चार करते हैं। [शासन में अपौरुषेयत्व का असंभव होने से जिनकत कतासिद्धि ] उपरोक्त चर्चा से यह सिद्ध होता है कि-अस्मर्यमाणकर्तृ कत्व को विशेषण लगाने पर भी वादि के पक्ष में, हेतु अनैकान्तिक और प्रतिवादी के पक्ष में तथा सभी के पक्ष में हेतु असिद्ध दोषग्रस्त ही रहता