________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञसिद्धिः 207 तथाहि-यदि सर्वज्ञे वीतरागे वा वचनं स्याद , असर्वज्ञाद रागादियुक्ताद् वा कदाचिदपि न स्याद् , अहेतोः सकृदप्यसम्भवाद् , भवति च तत् ततः, अतो न सर्वज्ञे तस्य त-सदृशस्य वा सम्भवःइति प्रतिबन्धसिद्धिः / अथ देशान्तरे कालान्तरे वाऽसर्वज्ञकार्यमेव वचनं न सर्वज्ञप्रभवमिति न दर्शनाऽदर्शनप्रमाणगम्यम्, दर्शनस्येयद्वयापाराऽसम्भवाद् अदर्शनस्य च प्रागेवैवंभूतार्थग्राहकत्वेन निषिद्धत्वात् / . तहि, सर्वदाऽग्निप्रभव एव धमोऽग्न्यभावे कदाचनापि न भवतीत्यत्रापि प्रत्यक्षस्य सन्निहितवर्तमानार्थ उसकी उत्पत्ति देखने में आती है / तदुपरांत, अग्नि से धूम की एकबार उत्पत्ति होती हुयी देखने पर भी दूसरी बार गोपाल घुटिका * (लोकभाषा में हक्का) आदि में अग्निजन्य पूर्वधूम से नये धूम की उत्पत्ति देखने में आती है तो इस प्रकार अग्नि के विना भी धूमोत्पत्ति हो जायेगी / अब आप अग्नि और धूम की व्याप्ति कैसे सिद्ध करेंगे? [ धूम में अग्नि व्यभिचार न होने की आशंका का उत्तर ] __यदि यह कहा जाय-"इन्धनादि सामग्री से जिस प्रकार का अग्नि उत्पन्न होता है वैसा अग्नि अरणिकाष्ठघर्षण या मणि आदि से उत्पन्न नहीं होता। तथा, अग्नि से जिस प्रकार का धूम उत्पन्न होता है वैसा धूम गोपालघटिका आदि में अग्निजन्यधूम से उत्पन्न नहीं होता है / तात्पर्य, दोनों जगह भिन्न भिन्न जाति के अग्नि और धूम उत्पन्न होते हैं / जैसे कि-इन्धनादि से ज्वालारूप अग्नि आर काष्ठघषण से मुमुर आदिरूप उत्पन्न होता है। यदि एक प्रकार के साधन से जैसा अग्नि और धूम उत्पन्न होता है वैसा का वैसा अग्नि और धूम अन्य प्रकार के साधन से भी उत्पन्न हो सकता है तब तो यह मानना होगा कि उस अग्नि और धम का तादृश प्रकार निहतुक ही है क्योंकि उसका किसी के भी साथ नियत अन्वय-व्यतिरेक ही नहीं है। इस प्रकार, अमुक से ही अमुक प्रकार के अग्नि की या धूम की उत्पत्ति होती है-ऐसा कोई नियत भाव नहीं रहने की आपत्ति होगी। क्योंकि जो निर्हेतुक होता है उसका न ही कोई नियत देश होता है, न कोई नियत काल होता है और न उसके स्वभाव का कुछ ठीकाना होता है / अतः उक्त आपत्ति टालने के लिये यह मानना होगा कि अग्नि से जो धूम उत्पन्न होता है या उसके जैसा जो धम होता है वह अग्नि के विरह में उत्पन्न नहीं होता / यदि उसके विरह में कोई धूम उत्पन्न होता है तो उस धूम का उत्पादक, अग्निसाभाववाला नहीं होना चाहिये / इस प्रकार कार्य-कारण भाव मानने में कोई व्यभिचार को अवकाश नहीं है / जैसा कि कहा गया है - "शक्रमूर्धा यानी वल्मीक [ जिसमें से कभी धूम निकलता दिखता है ] यदि अग्निस्वभाव है तो वह अग्नि ही है (उससे भिन्न नहीं है) और यदि वह अग्निस्वभाव वाला नहीं है तब तो वहाँ घूमोत्पत्ति की शक्यता कैसे ?" __ सर्वज्ञवादी के उपरोक्त वक्तव्य के विरुद्ध विरोधीयों का कहना यह है कि वक्तृत्व के लिये भी उपरोक्त सभी तर्क किये जा सकते हैं - के तंबाकु के धूम्रान के लिये काष्ट या खोपरे के कोचले का बनाया हुया लम्बी नालयुक्त साधनविशेष जिसके निम्नभाग में वर्तुलाकृति एक जलपात्र रहता है उसको घूटिका कहते हैं और ताम्बाकु का धूम जलसंपर्क से ठण्डा होकर मुख में आता है /