________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 231 for." अथातीतातीन्द्रियकालसंबन्धित्वं पूर्वदर्शनसम्बन्धित्वं वा वर्तमानकालसम्बन्धिनः पुरोव्यवस्थितस्यार्थस्य यदि चक्षरादिप्रभव प्रत्यभिज्ञानेन गद्यते तदा-"संबद्धं वत्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिभिः [ श्लो० वा० 4-84 इति वचन विरुद्धार्थं स्यात; तथा अतीन्द्रियकालदर्शनादेवर्तमानार्थविशेषणत्वेन ग्रहणेऽतीन्द्रियधर्मादेरपि ग्रहणप्रसंगात् प्रसंगसाधन-तद्विपर्यययोरप्रवृत्तिः स्वयमेव प्रतिपादिता स्यात / नन्वयमेवात्र दोषः कालविप्रकष्टार्थग्राहकत्वेन इन्द्रियजप्रत्यक्षस्य प्रतिपादयितमस्माभिरभिप्रत इति कस्याऽत्रोपालम्भः ? / ____अथ वर्तमानकालसंबद्ध विशेष्ये पुरोत्तिनि व्यापारवच्चक्षुस्तद्विशेषणभूतेऽतीन्द्रियेऽपि पूर्वकालदर्शनादौ प्रवर्तते, अन्यथा चक्षुापारानन्तरं 'पूर्वदृष्टं पश्यामि' इति विशेष्यालम्बनं प्रत्यभिज्ञान नोपपद्येत / नाऽग्रहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिरुपजायते दण्डाऽग्रहणे इव दण्डिबुद्धिः / न च धर्मादावयं न्यायः सम्भवतीति चेत् ? ननु धर्मादेः किमतीन्द्रियत्वाच्चक्षुरादिनाऽग्रहणम् उत अविद्यमानत्वात आहोस्वित् अविशेषणत्वात् ? अतीतकालसंबंधिता यह अतीतकाल से घटित होने के कारण कालविप्रकृष्ट है, तथा पूर्वदर्शनसंबंधिता यह भी पूर्वकालघटित होने से कालविप्रकृष्ट है, फिर भी समीपवर्ती पूर्वानुभूत वस्तु में स्मरणसहकृतनेत्रादिजन्य प्रत्यभिज्ञास्वरूप प्रत्यक्ष से आप उसका ग्रहण मानते ही हैं / यदि यह न माना जाय ताआप मीमांसकों के श्लोकवात्तिक में प्रत्यभिज्ञा की प्रामाण्य सिद्धि में जो यह कहा गया है कि "देशभेद होने से और कालभेद होने से मिति यानी प्रामाण्य अवसरप्रात है” तथा “साम्प्रतकालीनास्तित्व यह पर्वबद्धि से गहीत नहीं था ( अत: उस अर्थ में अनधिगतअर्थग्राहकता रूप प्रामाण्य सुरक्षिा इत्यादि वचन का अवलम्बन लेकर आप प्रत्यभिज्ञा रूप प्रत्यक्ष में अनधिगतार्थग्राहकता का और वस्तु में पूर्वापरकालसम्बन्धस्वरूपनित्यता का प्रतिपादन करते आये हैं-वह असंगत हो जायेगा। अगर आप इस प्रकार उपालम्भ देना चाहें कि-'नेत्रादिइन्द्रियजन्य प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षज्ञान यदि अतीत, अत एव अतीन्द्रिय कालसम्बन्ध को तथा पूर्वदर्शनसंबंधिता को वर्तमानकालसंबन्धी पुरोवर्तीपदार्थ में ग्रहण कर लेता होगा तो 'नेत्रादि अपने से संबद्ध और वर्तमानकालीन अर्थ को ही ग्रहण करता है' ऐसा श्लोकवात्तिक का वचन विरोधग्रस्त हो जायेगा। तदुपरांत, अतीन्द्रियकाल और पूर्वदर्शन का वर्तमानअर्थविशेषणतया ग्रहण मानेंगे तो अतीन्द्रियधर्मादि का भी ग्रहण शक्य हो जाने से (मीमांसक को) सर्वज्ञवाद के विरुद्ध प्रसंगसाधन और विपर्ययप्रतिपादन की प्रवृत्ति को अनवकाश स्वयं ही घोषित होगा"-तो इस पर व्याख्याकार सर्वज्ञविरोधी को कहते हैं कि हम तो यह चाहते ही हैं कि मीमांसक (या नास्तिक) को नेत्रादि इन्द्रिय को केवल विद्यमान के ग्राहक मानने में यह दोष दिया जाय, क्योंकि उसी के ग्रन्थ में प्रत्यभिज्ञा प्रामाण्य के अवसर पर इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष को कालविप्रकृष्टार्थग्राहक दिखाया गया है। फिर आप सोचिये तो सही कि यह उपालम्भ किस को दिया जाय ? हमें या मीमांसक को? [धर्मादि के अप्रत्यक्ष में तीन विकल्प] यदि यह कहा जाय-जब वर्तमानकालसम्बद्ध विशेष्यभूत पुरोवर्ती पदार्थ के साथ नेत्रसंनिकर्ष होता है तब पूर्वकालदर्शन अतीन्द्रिय होने पर भी उपरोक्त विशेष्य का विशेषण होने के कारण गृहीत हो जाता है / ऐसा यदि न माना जाय तो नेत्रसंनिकर्ष के बाद “मैं पूर्वदृष्ट को देखता हूँ इस प्रकार पुरो