________________ . 182 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ गृह्यते, उतानुमानेन ? न तावदध्यक्षेण, अध्यक्षस्यात्यक्षज्ञानवत्सत्त्वसाक्षात्करणाक्षमत्वेन तदवगतिनिमित्तहेतुप्रतिबन्धग्रहणेऽप्यक्षमत्वात् , न शनवगतसंबन्धिना तद्गतसम्बन्धावगमो विधातु शक्यः / नाप्यनुमानेन तद्गतसम्बन्धावगमः, तथाभ्युपगमेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोषद्वयानतिवृत्तेः / न चाऽगृहीतप्रतिबन्धाद्धेतोरुपजायमानमन्मानं प्रमाणतामासादयति / तथा, धर्मिसम्बन्धावगमोऽपि न प्रत्यक्षतः, अनक्षज्ञानवत्प्रत्यक्षेऽक्षप्रभवस्याध्यक्षस्याऽप्रवृत्तः, प्रवृत्तौ वाऽध्यक्षेणैव सर्वविदः संवेदनाद् अनुमाननिबन्धनहेतुव्यापारणं व्यर्थम् / न चानुमानतोऽप्यनक्षज्ञानवतोऽवगमः, हेतु-पक्षधर्मतावगममन्तरेणानुमानस्यैव मिग्राहकस्याऽप्रवृत्तेः, न चाऽप्रतिपन्नपक्षधर्मत्वो हेतुः प्रतिनियतसाध्यप्रतिपत्तिहेतुरिति नाऽनुमानतोऽपि सर्वज्ञप्रतिपत्तिः / [सर्वज्ञ का उपलम्भ अनुमान से अशक्य ] अनुमान से भी सकलपदार्थज्ञाता का उपलम्भ शक्य नहीं है। अनुमान तभी प्रमाण बन सकता है, जब वह ऐसे हेतु से उत्पन्न हो जिसका अपने साध्यभूत धर्म के साथ (व्याप्ति रूप सम्बन्ध) और धर्मी के साथ सबन्ध होने का निश्चय हो। साध्यधर्म प्रस्तुत में सकलपदार्थज्ञाता की सत्ता है, उसके साथ हेतु का व्याप्ति सम्बन्ध किस प्रमाण से निश्चित होगा? प्रत्यक्ष से या अनुमान से ? प्रत्यक्ष से व्याप्ति का निश्चय शक्य नहीं है। कारण, साध्य अतीन्द्रियवस्तुज्ञान के सत्त्व के ग्रहण में प्रत्यक्ष समर्थ नहीं है इसलिये अतीन्द्रियवस्तुज्ञाताग्रहणमूलक व्याप्ति के ग्रहण में भी प्रत्यक्ष की क्षमता नहीं है / जिसका सम्बन्धी अज्ञात है उसके सम्बन्ध का भी ज्ञान हो नहीं सकता। अनुमान से भी हेतुनिष्ठ व्याप्तिसम्बन्ध का बोध अशक्य है क्योंकि यहाँ इतरेतराश्रय और अनवस्था दोषयुगल दुनिवार हैं-१ इतरेतराश्रयः-हेतुनिष्ठव्याप्ति का बोध जिस अनुमान से करना है उस अनुमान की कारणीभत व्याप्ति भी यदि प्रथम अनमान से गहीत होगी तो प्रथम औ अनुमान एक-दूसरे के आश्रित बन जायेंगे / २-अनवस्था:-यदि द्वितीय अनुमान कारणीभूत व्याप्ति का बोध तृतीय अनुमान से करेंगे तो तृतीय अनुमान में आवश्यक तदीयव्याप्तिज्ञान के लिये चौथा अनुमान करना पड़ेगा तो इसका कहीं भी अन्त नहीं आयेगा। यदि कहें कि-'व्याप्तिज्ञान के विना ही प्रथम अनुमान हो जायेगा इसलिये कोई दोष नहीं होगा'-तो यह समझ लो कि-व्याप्तिग्रह शून्य हेतु से होने वाला अनुमान कभी भी प्रमाणमुद्रा से अंकित नहीं होता। [धर्मी सम्बन्ध का ज्ञान प्रत्यक्ष-अनुमान से अशक्य ] सर्वज्ञसत्त्वरूप साध्य धर्म का धर्मी जो सर्वज्ञ है उसके साथ हेतु का सम्बन्धज्ञान भी आवश्यक है किन्तु प्रत्यक्ष से वह नहीं हो सकता क्योंकि अतीन्द्रियज्ञानवान के साक्षात्कार में इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष की पहुंच नहीं है। यदि इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष की वहाँ प्रवृत्ति शक्य है तो उस प्रत्यक्ष से ही सर्वज्ञ का संवेदन सिद्ध हो जाने से अनुमान के लिये हेतु का प्रयोग निरर्थक हो जायेगा / धर्मो अतीन्द्रियज्ञानवान का अनुमान से भी बोध शक्य नहीं है, क्योंकि हेतु की पक्षवृत्तिता के ज्ञान के विना धर्मिग्राहक अनुमान की प्रवृत्ति ही शक्य नहीं है और हेतु की पक्षवृत्तिता यानी अतीन्द्रियज्ञानवान में हेतु की वृत्तिता जब तक ज्ञात न हो तब तक, प्रतिनियत यानी अपने इष्ट साध्य, के अनुमान में वह हेतु कारण नहीं बन सकता / इस प्रकार यह फलित होता है कि अनुमान से भी सर्वज्ञ का ज्ञान शक्य नहीं है।