________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 201 'कथं पुनरत्र प्रसंगः विपर्ययो वा क्रियते?' इति चेत? तदुच्यते-“सार्वज्ञं प्रत्यक्षं यद्यभ्युपगम्यते तवा तद् धर्मग्राहकं न भवति, विद्यमानोपलम्भनत्वात् / न चासिद्धो हेतु / तथाहि-विद्यमानोपलम्भः नमतीन्द्रियार्थजप्रत्यक्षम, सत्संप्रयोगजत्वात् / अस्याप्यसिद्धतोद्धावने एवं वक्तव्यम् विवादगोचर प्रत्यक्ष सत्संप्रयोगजम् , प्रत्यक्षत्वात्-तच्छब्दवाच्यत्वाद्वा। अस्मदादिप्रत्यक्ष सर्वत्र दृष्टान्तः / " इति प्रसंगः / विपर्ययस्त्वेवम्-"तद् धर्मग्राहक चेत न विद्यमानोपलम्भनम् , अविद्यमानत्वाद् धर्मस्य / अविद्यमानोपलम्भेनत्वे न सत्संप्रयोगजम् / असत्संप्रयोगजत्वे न प्रत्यक्षम् नापि तच्छन्दवाच्यम्"। प्रसंगसाधनाभिप्रायेणैव 'यदि' अर्थोपक्षेपेण वात्तिककृताप्यभिहितम् "यदि षभि प्रमाणैः स्यात् सर्वज्ञः केन वार्यते ? // [ 1[ श्लो०वा सू० 2-111 उ० ] एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते / ननं स चक्षुषा सर्वत्रसादीन (? सर्वान् रसादीन्) प्रतिपद्यते // न्द्रिय पदार्थों को विषय. करने वाला प्रत्यक्ष नहीं है। यहां दो प्रश्न है-१. उक्त निषेध में अतीन्द्रियपदार्थविषयकप्रत्यक्षात्मक धर्मी का निषेध अभिमत है ? या अतीन्द्रियपदार्थविषयकज्ञान में प्रत्यक्षत्वधर्म का निषेध अभिमत है ? प्रथम पक्ष में जिस हेतु से आप धर्मी का निषेध करना चाहते हो वह आश्रयासिद्ध हो जायेगा क्योंकि धर्मीस्वरूप आश्रय ही असिद्ध है। दसरे पक्ष में प्रत्यक्षत्व धर्म का निषेध करने पर अतीन्द्रियपदार्थविषयकज्ञान को अन्य प्रमाणरूप से मानने की आपत्ति आयेगी क्योंकि जैसे ब्राह्मण्य का निषेध वैश्यत्वादि में सम्मति सूचक होता है वैसे यहां प्रत्यक्षत्वरूप एक विशेष का निषेध अन्य प्रमाणरूप विशेष के विधान में फलित होगा।" सर्वज्ञवादी के इस कथन को अप्रेर्य यानी अवसरशुन्य दिखाने में नास्तिक का यह अभिप्राय है कि हम विशेष निषेध को अन्य अर्थ में सम्मतिफलक नहीं मानते किंतु उस विशेषरूप से तद् तद् वस्तु के सत्त्व का निषेध ही सम्मत है / आपने जो धीरूप आश्रय की असिद्धि का दोष दिखलाया है वह भी अनवसर है क्योंकि पहले ही हमने कह दिया है कि हम धर्मी को 'यदि' पद के अर्थरूप में ही स्वीकारते हैं। . [सर्वज्ञाभावप्रतिपादक प्रसंग और विपर्यय ] सर्वज्ञवादी को यह जानना हो कि ये प्रसंग-विपर्यय किस प्रकार कहते हो तो यह हम दिखाते हैं प्रसंगः- सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष कदाचित् मान भी लिया जाय तो वह धर्मग्राहक नहीं होता। क्योंकि वह प्रत्यक्ष विद्यमान का ही ग्राहक है / इस प्रयोग में हेतु असिद्ध नहीं है, जैसे-अतीन्द्रियार्थजन्य प्रत्यक्ष विद्यमान का ग्राहक है क्योंकि सत्पदार्थसम्पर्क से जन्य है। यहाँ भी हेतु में असिद्धि का उद्भावन किया जाय तो प्रतीकार में यह कहेंगे कि-विवादास्पद प्रत्यक्ष सत्पदार्थसम्पर्क जन्य है क्योंकि प्रत्यक्ष है, अथवा प्रत्यक्षशब्दवाच्य है इसलिये / तीनों स्थल में हमारे प्रत्यक्ष को दृष्टान्तरूप में प्रस्तुत समझना / यह.प्रसंग हुआ। विपर्ययः- यदि वह प्रत्यक्ष धर्मग्राही है तो वह विद्यमान का ग्राहक नहीं होना चाहिये क्योंकि धर्म उसकाल में विद्यमान नहीं होता [ किन्तु भावि में निष्पाद्य होता है ] / विद्यमान का उपलम्भक-ग्राहक न होने पर वह प्रत्यक्ष सत्पदार्थसंपर्कजन्य नहीं होगा और सत्पदार्थसंपर्कजन्य न होने पर वह न तो प्रत्यक्ष होगा, न तो प्रत्यक्ष शब्द से व्यवहार योग्य होगा।