________________ 196 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च साध्यमिणि दृष्टान्तामणि च प्रवर्तमानेन प्रमाणेनाऽर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्य लिंगस्य च यथाक्रमं प्रतिबंधो गृह्यत इत्येतावन्मात्रेणाऽर्थापत्त्यनुमानयोर्भेदोऽभ्युपगंतुयुक्तः, अन्यथा पक्षधर्मत्व• सहितहेतुसमुत्थादनुमानात तद्रहितहेतुसमुत्थमनुमानं प्रमाणान्तरं स्यादिति प्रमाणषट्कवादो विशीर्येत / . 'नियमवतो लिंगात् परोक्षार्थप्रतिपत्तेर विशेषाद न ततस्तद् भिन्नम् इत्यभ्युपगमे स्वसाध्याऽविनामूता• दर्थादर्थप्रतिपत्तेरविशेषादनुमानादर्थापत्तेः कर्थ नाऽभेदः ? ! तदेव प्रमाणत्वेऽर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावाद अनुमानस्य सर्वज्ञाभावप्रतिपादकस्य निषेधात तम्निषेधे चार्थापत्तेरपि तदभावग्राहकत्वेन निषेधान्नार्थापत्तिसमधिगम्योऽपि सर्वज्ञाभावः। प्रभावाख्यं तु प्रमाणमप्रमाणत्वादेव न तदभावसाधकम् / प्रमाणत्वेऽपि किमात्मनोऽपरिणामलक्षणं तत्, आहोस्विदन्यवस्तुविज्ञानलक्षणमिति ? तत्र यद्यात्मनोऽपरिणामलक्षणं तदभावसाधकमिति पक्षः स न युक्तः, तस्य सत्त्वेनाऽभ्युपगते परचेतोवृत्तिविशेषेऽपि सद्भावेनानकान्तिकत्वात् / अथान्यविज्ञानलक्षणमिति पक्षः, सोऽप्यसंबद्धः, यतः सर्वज्ञत्वादन्यद् यदि किंचिज्जत्वं, तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञान-तदा का भेद फलित नहीं होता / कारण, अनुमान में भी यह तो मानना ही होगा कि कभी कभी अपने साध्यधर्मी में ही, साध्य व्यतिरेक द्वारा हेतु की घ्यावृत्ति दिखाने में प्रवर्त्तमान प्रमाण सर्वोपसंहारेण स्वसाध्यनियतत्व का निश्चय उत्पन्न करता है। यदि यह नहीं मानेंगे तो आपको एक अनुपपत्ति यह होगी कि-'सभी वस्तु अनेकान्तात्मक है क्योंकि सत् हैं इस तमाम वरतु प्रविष्ट हो जाने से कोई दृष्टान्तधर्मी ही बचा नहीं तो अनुमान में स्वसाध्य नियतत्व का निश्चय केवल दृष्टान्तधर्मी में ही प्रवर्त्तमान प्रमाण से होने का मानने वालों के मत में यहाँ प्रस्तुत में सत्त्व हेतु का अनेकान्तात्मकत्वरूप स्वसाध्यनियतत्व अवगत कराने वाला, विपक्ष में बाधक कौन सा प्रमाण होगा जो दृष्टान्तधर्मी में प्रवृत्त होकर साध्य का बोध करायेगा? __ [ हेतुभेद से अनुमानप्रमाणभेद की आपत्ति ] ___ यह उचित नहीं है कि अर्थापत्ति उत्थापक अर्थ का प्रतिबन्ध साध्यधर्मी में गृहीत होता है और लिंग का व्याप्तिग्रह दृष्टान्तधर्मी में होता है इतने भेद मात्र से अर्थापत्ति-अनुमान का सर्वथा भेद मान लिया जाय / क्योंकि इस तरह प्रमाणभेद मानने पर तो पक्षधर्मताविशिष्ट हेतु से उत्पन्न अनुमान और पक्षधर्मता रहित हेतु से उत्पन्न अनुमान इन दोनों का भी भेद मान कर अलग अलग प्रमाण मानने पर षट् प्रमाण संख्या का अवधारणवाद तितर बितर हो जायेगा। यदि वहाँ ऐसा तर्क किया जाय-दोनों जगह यह समानता है कि व्याप्तिविशिष्ट लिंग से ही परोक्ष अर्थ का भान होता है, अतः पक्षधर्मता से शून्य और अशून्य हेतुद्वय जनित अनुमानद्वय में भेद नहीं हो सकता"-तो अर्थापत्ति-अनुमान स्थल में भी यह तर्क समान है कि दोनों जगह स्वसाध्य के अविनाभूत पदार्थ ( चाहे वह अपत्ति उत्थापक अर्थ हो या लिंग हो) से परोक्ष अर्थ का भान होता है / जब तर्क समान है तो अर्थापत्ति और अनुमान का भी अभेद क्यों न माना जाय?। - उपरोक्त का सार यह है कि अर्थापत्ति प्रमाणरूप होने पर अनुमान प्रमाण में उसका अन्तर्भाव हो जाता है और सर्वज्ञाभाव प्रतिपादक अनुमान का निषेध पहले किया गया है अत: उसके निषेध से, सर्वज्ञाभावग्राहक अर्थापत्ति का भी निषेध फलित हो जाने से यह निष्कर्ष मानना चाहिये कि सर्वज्ञाभाव अर्थापत्तिगम्य भी नहीं है।