________________ प्रथम खण्ड-का० १-ज्ञातृव्यापार० .. कि चासौ व्यापारः फलजनने प्रवर्तमानः किमपरव्यापारसव्यपेक्षः ? अथ निरपेक्षः ? इत्यत्रापि कल्पनाद्वयम् / तत्र यद्याद्या कल्पना, सा न युक्ता, अपरापरव्यापारजननक्षीणशक्तित्वेन व्यापारस्यापि फलजनकत्वाऽयोगात् / अथ व्यापारान्तरानपेक्षः एव फलजनने प्रवर्तते तहि कारकाणामपि व्यापारनिरपेक्षाणां फलजनने प्रवृत्तौ न कश्चिच्छक्तिव्याघातः सम्भाव्यते / अथ व्यापारस्य व्यापारस्वरूपत्वान्नापरव्यापारापेक्षा, कारकाणां त्वव्यापाररूपत्वात् तदपेक्षा / का पुनरियं व्यापारस्य ध्यापारस्वभावता? यदि फलजनकत्वम्, तद् विहितप्रतिक्रियम् / अथ कारकाश्रितत्वम्, तदपि भिन्नस्य तज्जन्यत्व विहाय न सम्भवतीत्युक्तम् / अथ कारकपरतन्त्रत्वम् , तदपि न, अनुत्पन्नस्याऽसत्त्वात् / नाप्युत्पन्नस्य, अन्यानपेक्षत्वात्, तथापि तत्परतन्त्रत्वे कारकाणामपि व्यापारपरतन्त्रता स्यात् / अपेक्षा किये विना ही प्रवृत्त होते हैं ? अगर प्रथम विकल्प माना जाय, तो उस द्वितीय व्यापार के उत्पादन में उपयुज्यमान कारकों अन्य कोई तृतीय व्यापार से सहकृत होकर प्रवृत्त होने चाहिये, तृतीय व्यापार के उत्पादन में भी एवं अन्य व्यापार सहकृत होकर कारकों की प्रवृत्ति होगी। इस प्रकार अनवस्था चलेगी तो प्रस्तुत फलोत्पादक व्यापार का जन्म ही न हो सकेगा। तब प्रस्तुत फल को उत्पत्ति हो न होने को आपत्ति आने से व्यापार की कल्पना में किसी का श्रेय नहीं है। यदि दूसरे विकल्प के पक्ष में कहें कि अन्य कोई व्यापार के सहकार विना ही कारकसमूह प्रस्तुत व्यापारोत्पत्ति में प्रवृत्त होंगे तो उक्त अनवस्था दोष नहीं होगा।'-तो प्रस्तुत व्यापार की अपेक्षा विना ही कारक समूह अर्थप्रकाशनरूप फल में प्रवृत्त होगा, फिर जिसका उपलम्भ ही नहीं है वैसे व्यापार की कल्पना का कष्ट क्यों उठाया जाय ?! [ व्यापार को अन्य व्यापार की अपेक्षा है या नहीं ? ] व्यापार के विषय में अन्य भी दो कल्पनाएँ सावकाश हैं, (1) फलोत्पत्ति में प्रवर्त्तने वाले व्यापार को अन्य व्यापार की अपेक्षा रहती है ? (2) या नहीं रहती है ? आद्य कल्पना का यदि स्वीकार करें तो वह अयुक्त है / कारण, उस दूसरे व्यापार को भी नये अन्य व्यापार की अपेक्षा रहेगी, उस को भी नये अन्य व्यापार की, इस प्रकार अन्त ही नहीं आयेगा तो प्रस्तुत व्यापार की' शक्ति तो अन्य अन्य नये व्यापार के उत्पादन में ही क्षीण हो जायेगी, उससे अर्थप्रकाशनरूप फल की उत्पत्ति न हो सकेगी। दूसरी कल्पना में, अन्य व्यापार की अपेक्षा माने विना ही फलोत्पत्ति में प्रवृत्ति मानी जाय तो यह भी संभावना हो सकती है कि कारकसमूह भी व्यापार की अपेक्षा किये विना ही र फलोत्पत्ति में प्रवृत्त हो सकने से उसकी भी शक्ति का व्याघात नहीं होगा। - यदि यह कहा जाय कि- 'व्यापार तो स्वयं व्यापारस्वरूप है इसलिये उसको अन्य व्यापार की अपेक्षा न होना सहज है, किंतु कारकसमूह व्यापारात्मक नहीं है इसलिये उसको व्यापार की अपेक्षा हो सकती है / '- तो इस पर प्रश्न है कि 'व्यापार की व्यापारस्वभावता' यानी क्या ? यदि व्यापारस्वभावता को फलजनकतारूप माने तो उसके प्रतिकार में 'अन्या कारकों की व्यर्थता ही जाने की आपत्ति' पहले बता चुके हैं / यदि व्यापारस्वभावता को 'कारकाश्रितता' रूप यानी कारकों से में आश्रित होना' इस स्वरूप में मानी जाय तो इस सम्बन्ध में भी पहले कारकों की शक्ति के विषय में कहा है कि- कारकों से भिन्नता होने पर यदि वे कारकजन्य नहीं होगे तो कारकों में 'आश्रित नहीं है हो सकते क्योंकि तज्जन्यत्व के सिवा और कोई सम्बन्ध बहाँ संगत नहीं होता इत्यादि। यदि व्यापार /