________________ प्रथम खण्ड-का० १-शब्दाऽनित्यत्व० 153 व्यंजकैः प्रतिनियताऽऽवारकनिराकरणद्वारेण प्रतिनियतवर्णसंस्काराद न युगपत्सर्ववर्णश्रुतिदोषः / स्यादेतद् यदि व्यंजकानां वायूनां भेदः स्यात् , स चाऽऽवारकभेदनिबन्धनः, अन्यथा तदभेदेऽभिन्नावारकापनेतृत्वेन कुतो व्यञ्जक भेदः ? आवारकभेदोऽपि वर्णदेशभेदनिबन्धनः, अन्यथा समानदशानां यदेबैकस्यावारकं तदेवापरस्यापि इत्यावारकभेदो न स्यात् / देशभेदोऽपि वर्णानामव्यापकत्वे सति स्यात , व्यापकत्वे तु परस्परदेशपरिहारेण वर्णानामवस्थानाभावान्न देशभेदः। न चाऽव्यापकत्वं वर्णानामभ्युपगम्यते भवद्भिरिति न देशभेदः, तदभावान्नावारकभेदः, तदसत्त्वान्न व्यंजकभेद इति युगपत्सर्ववर्णश्रुतिरिति तदवस्थो दोषः। नापि "आवारकाणां न वर्णपिधायकत्वेनावारकत्वं किन्तु वर्णे दृश्यस्वभावखंडनात् / व्यंजकानामपि न तदावारकापनेतृत्वेन व्यंजकत्वं किन्तु वर्णे दृश्यस्वभावाधानात् , इति पूर्वोक्तदोषाभाव" इति वक्तु शक्यम् , यत एवमभिधाने स्ववाचैव तस्य परिणामित्वमभिहितं स्यादित्यविप्रतिपत्तिप्रसंगः। तन्न वर्णसंस्कारोऽभिव्यक्तिरिति पक्षो युक्तः / [ सकल वर्गों का एक साथ श्रवण होने की आपत्ति ] यह भी सोचिये कि- सभी वर्ण व्यापक हैं एवं समानदेशवर्ती भी हैं- तो एक वर्ण का आवरण यदि दूर होगा तो सभी क ख आदि वर्गों का आवरण दूर हो जाने से एक साथ सभी वर्गों का श्रवण होने की आपत्ति आयेगी / अब यदि यह आशंका करें कि- “एक साथ सभी वर्ण का श्रवण नहीं होता किंतु प्रतिनियत देश आदि में ही प्रतिनियत वर्णादि का श्रवण होता है, यह तभी घट सकता है जब व्यंजकों में भेद माना जाय / व्यंजकभेद इस प्रकार सिद्ध होने पर प्रतिनियत व्यंजक से प्रतिनियत वर्ण के आवारक वायु का ही अपसारण होने से प्रतिनियत वर्ण का ही संस्कार होगा और वही वर्ण सुनाई देगा। इस प्रकार एक साथ सभी वर्गों के श्रवण का दोष नहीं होगा। यह आशंका तभी हो सकती अगर व्यंजक वायुओं का भेद मूलतः सिद्ध होता / किंतु आपके कथनानुसार तो वह आवारकभेदमुलक फलित होता है, क्योंकि यदि आवारक वाय एक ही होगा तो एक ही * "व्यंजक से एक आवरण का अपसारण हो जाने पर व्यंजकभेद कैसे सिद्ध होगा? आवारकभेद भी वर्णदेशभेदमूलक ही मानना होगा, अन्यथा सभी वर्ण का यदि एक ही देश मानेंगे तो एक वर्ण का जो आवारक होगा वही अन्य वर्गों का आवारक होगा तो आवारक भेद नहीं हो सकेगा। वर्णों का देशभेद भी वर्गों के अव्यापक मानने पर ही घट सकता है। व्यापक वर्ण होने पर एक-दूसरे के देश को छोडकर वर्णों का अवस्थान होना चाहिये वह नहीं होगा, तो देशभेद नहीं मान सकेंगे / अब आप वर्णों को व्यापक तो मानते नहीं है तो देशभेद नहीं होगा, उसके न होने पर आवरणभेद न होगा, उसके न होने पर व्यंजक भेद भी नहीं माना जा सकेगा, तो एक साथ सभी वर्गों के श्रवण का दोष तदवस्थ ही रहता है। [शब्द में श्रव्य स्वभाव का मर्दैन और आधान मानने में परिणामवाद प्राप्ति ] यह भी नहीं कहा जा सकता कि- “आवारक वायु वर्गों का पिधान यानी ढक्कन बनकर उनका आवारक नहीं है किन्तु वर्ण का जो प्रत्यक्षयोग्यस्वभाव है उस का मर्दन कर देते हैं इसलिये आवारक हैं / एवं व्यंजक वायु आवरण का अपसारण करते हैं इसलिये वे व्यंजक नहीं है में प्रत्यक्षयोग्यस्वभाव का आधान करने से वे व्यंजक कहे जाते हैं। इस प्रकार कोई भी