________________ 166 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ____ अतः पौरुषेयत्वनुमानादवसीयते / तथा हि- ये नररचितरचनाऽविशिष्टाः ते पौरुषेयाः यथाऽभिनवकूप-प्रसादादिरचनाऽविशिष्टा जीर्णकूप-प्रासादादयः, नररचितवचनरचनाऽविशिष्टं च वैदिकं वचनमिति प्रयोगः। न चात्राऽऽश्रयासिद्धो हेतुः, वैदिकीनां रचनानां प्रत्यक्षतः उपलब्धेः / नाप्यप्रसिद्ध विशेषणः पक्षः, अभिनवकपप्रासादादिषु पुरुषपूर्वकत्वेऽस्य साध्यधर्मलक्षणस्य विशेषणस्य सिद्धत्वात् / न च हेतोः स्वरूपाऽसिद्धत्वम्, वैदिकोषु वचनरचनासु विशेषग्राहकप्रामाणाभावेन तस्याऽभावात् / - न चाऽप्रामाण्याभावलक्षणो विशेषस्तत्र इति शक्यमभिधातुम्, तथाभूतस्य विशेषस्य विद्यमानस्यापि पौरुषेयत्वाऽनिराकरणत्वात् / यादृशो हि विशेष उपलभ्यमानः पोरुषयत्वं निराकरोति तादृशस्य विशेषस्याऽभावादविशिष्टत्वमुच्यते, न पुनः सर्वथा विशेषाभावात्, एकान्तेनाऽविशिष्टस्य कस्यचिदभावात् / अप्रामाण्याभावलक्षणश्च विशेषो दोषवन्तमप्रामाण्यकारणं पुरुष निराकरोति, न च गुणवन्तमप्रामाण्यनिवर्तकम् / न च गुणवतः पुरुषस्याभावात अन्यस्य च तेन विशेषेण नित्तितत्वात् सिद्धमेवाऽपौरुषेयत्वं वेदे इत्यभ्युपगमनीयम्, अपौरुषेयत्वस्य निरकृतत्वाद, गुणवत्पुरुषाभावेऽप्रामाण्याभावलक्षणस्य विशेषस्याभावप्रसंगात नाऽसिद्धो नररचितवचनरचनाऽविशिष्टत्वलक्षणो हेतुः। ' कारण वैदिक शब्दों को अपौरुषेय समझा जाय और लौकिक शब्दों को पौरुषेय समझा जाय ? संकेत के अनुसार अर्थ का प्रतिपादन तो दोनों प्रकार में तुल्य है। यदि वेद नित्य हो तो उसके संकेत को नित्य मानने की अपेक्षा पुरुषेच्छा रूप अनित्य संकेत द्वारा अर्थ का प्रतिपादन मानना युक्त नहीं है / किंतु जिस शब्द में जिस अर्थ का पुरुषों ने संकेत किया है उस अर्थ को विसंवाद विना प्रतिपादन करने वाले ही शब्द उपलब्ध होते हैं इससे शब्द को भी अनित्य ही मानना चाहिये / यदि पुरुष कृत संकेतों को न माना जाय तो वैदिक शब्दों में भिन्न-भिन्न संकेत अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ की प्रतिपादकता की कल्पना निरर्थक हो जायेगी। [ अनुमान से वेद में पौरुषेयत्वसिद्धि ] इस अनुमान से भी वेद की पौरुषेयता ज्ञात होती है / जैसे-"जो पदार्थ मनुष्यरचित कृतिओं से भिन्न नहीं होते वे पुरुषरचित होते हैं, जैसे कि पुराने कुवा और महल आदि अभिनव निष्पन्न कुवामहल आदि से भिन्न नहीं है तो वे पुरुषरचित ही होते हैं। वैदिक वाक्य भी मनुष्यरचित कृति से भिन्न है अतः पौरुषेय सिद्ध होते हैं।" इस प्रयोग में हेतु के आश्रय की असिद्धि नहीं है क्योंकि वैदिक वाक्यरचना अभी भी प्रत्यक्षतः उपलब्ध हैं। पक्ष का विशेषण यानी साध्यरूप से अभिमत धर्म भी अप्रसिद्ध नहीं है / कारण, नूतननिर्मित कुवा-महलादि पुरुष प्रयत्न पूर्वक होने से साध्यधर्म पौरुषेयत्व रूप विशेषणं जगत्विदित है। पक्ष में हेतू की स्वरूपतः असिद्धि भी नहीं है क्योंकि-'पक्षभूत वैदिक वाक्य रचना में मनुष्यरचितकृति साम्य नहीं है और वह केवल जीर्णकूपादि में या बौद्धादि आगम में ही है' इस प्रकार के भेद का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है इसलिये स्वरूपासिद्धत्वदूषण का अभाव है। [अप्रामाण्याभावरूप विशेषता अकिंचित्कर है ] अपौरुषेयवादीः-वेदरचना में यह विशेषता है कि वेद में अप्रामाण्य का अंश भी नहीं है / उत्तरपक्षी:-ऐसा कहना सरल नहीं है क्योंकि यह कोई ऐसी विशेषता नहीं है कि जिसकी